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________________ ( ३२१ हैं, उनमें से बचा हुआ आहार पानी कोई देगा तो एक के पास से लूंगा, अन्यथा नहीं, अथवा गृह द्वार के भीतर रह कर वा उसके बाहर आकर गृहस्वामिनी देगी तो उसके हाथ से न लूंगा, किन्तु एक पग द्वार के भीतर तथा एक द्वार के बाहर पग रखकर खडी कोई गृहस्वामिनीं भिक्षा देगी तो लूंगा इत्यादि । उक्त तपों के अतिरिक्त भी अनेक प्रकार के तप श्रमण श्रमणियों के करने योग्य हैं । जो यहां नहीं दिये गये हैं । ये सभी तप जैन सूत्रों में वर्णन किये गये हैं। वसु देव हिंदी आदि पौराणिक ग्रन्थोक्त तपो-विधियों की संख्या तो सैकड़ों ऊपर है, परन्तु उनके निरूपण का यह योग्य स्थान नहीं । उक्त आगमिक तप में से वर्त्तमान काल में केवल "वधमान आयंबिल तप" श्रमण श्रमणियों तथा जैन उपासक उपासिकाओं द्वारा किया जाता है। शेष आगमिक तपों में से आज कोई प्रच लित नहीं है । संलेखना और भक्त प्रत्याख्यान जैन श्रमण को अपने अन्तिम जीवन में अन्य प्रवृत्तियों से निवृत्त होकर विशेष तपस्याओं द्वारा शरीर को कृश बना कर मृत्यु के समीप पहुँचने का शास्त्रादेश है । इस विधान को जैन शास्त्र " संलेखना इस नाम से उद्घोषित करते हैं। संलेखना करने वाला सामान्य श्रमण अथवा आचार्य उपाध्याय आदि, कोई भी पदस्थ पुरुष हो उसकी भावना जब यह हो जाय कि इस शरीर 66
SR No.022991
Book TitleManav Bhojya Mimansa
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKalyanvijay Gani
PublisherKalyanvijay Shastra Sangraha Samiti
Publication Year1961
Total Pages556
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size27 MB
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