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(२८१ ) में भी पर्याप्त ह्रास हो चुका था। इनके पहले के श्रमण अविभक्त अनुयोग मय श्रुत पढते थे, और अपनी बुद्धि से उनमें से अनुयोग नय, निक्षेप विषयक ज्ञान प्राप्त कर लेते थे । परन्तु आर्य रक्षित जी ने वर्तमान समय के लिये इस पद्धति को दुरूह समझा और जेन प्रवचन को चार अनुयोगों में बांट दिया। जिसका सूचक आवश्यक नियुक्ति की निम्नोद्ध त गाथाओं से मिलता है।
जाति अज्जवहरा अपहुचे कालियाणुओगस्स । ' तेणारेणपुहुर्न कालिय सुअ दिद्विवाए य ॥७६२॥ देविंद वंदिएहिं महाणुभागे हि रक्खि अज्जेहिं । जुग मासज्ज विभत्तो अणुओगो तो को चउहा ।।७७४
, (आ०नि०). अर्थ-जब तक आर्य वन जीवित रहे, तब तक कालिक श्रुत का अनुयोग पृथक नहीं हुआ था । आर्य वन के बाद कालिक श्रुत तभा दृष्टिवाद में अनुयोग पृथक् हुए।
इन्द्रवन्दित महाभाग आर्य रक्षित ने समय की विशेषता पाकर अनुयोग को चार भागों में बांटा, अर्थात् वर्तमान श्रुत को चरण करणानुयोग, धर्मकथानुयोग, गणितानुयोग, और द्रव्यानुयोग इन चार विभागों में बांट दिया। मूल भाष्यकार चार अनुयोगों का सूचन नीचे अनुसार करते हैं कालिय सूयं च इसि भासियाई तइयो य सूर पएणत्ति । सव्वोय दिद्विवाओ चउत्थरो होइ' अणुओगो ॥१२४॥
. . . . . (मु० भा०)