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२ मिथ्याकार.. साधु से कोई भी मानसिक, वाचिक, कायिक, अपराध हो जाने पर उसे तुरन्त "मिच्छा मी दुक्कड' (मिथ्या मे दुष्कृतम् ) अर्थात् मेरा यह अपराध मिथ्या हो, इस प्रकार उसे भूल का पछतावा करना होता है।
३ तहत्ति (तथाकार ) गुरु अथवा अपने से किसी बड़े श्रमण के कार्य-विषयक सूचना करने पर उसका स्वीकार करता हुआ साधु कहता है तहत्ति ( तथेति ) अर्थात् वैसा ही करूंगा।
४ आवस्सिही ( आवश्यकी) श्रमण किसी जरूरी कार्य के लिये अपने स्थान से बाहर निकलता है, तब वह "आवस्सिही" ( आवश्यकी ) कहकर निकलता है क्योंकि श्रमण को निष्कारण भ्रमण निषिद्ध होने से वह इससे सूचित करता है कि मैं आवश्यक कार्य के लिये जा रहा हूँ।
५ निस्सिही ( नैषेधिकी) साधु आवश्यक कार्य से लौटकर अपने उपाश्रय में आता है तब "निस्सिही" नैषेधिकी ) कहकर स्थान में प्रवेश करता है। इसका तात्पर्य यह है कि वह जिस आवश्यक कार्य से बाहर गया था, उसको करके अब वह भ्रमण से निवृत्त हो गया।