________________
_~~
२३४ )
.. सवदुक्स पहीणड्डा, पामन्ति महेसिखो ॥१३॥
दुकराई करिता, दुसहाई सहेत्तुय । कैइत्थ देवलोयेसु, केई सिझति नीरया ॥१४॥ खविता पुव्व कम्माई, संजमेण तवेण य । सिद्धिमग्गमणुप्पत्ता, ताइयो परिणिबुडेतिबेमि ॥१५॥
अर्थ-पश्चानव परिज्ञाला ( पांच बालवों को जिन्होंने छोड़ दिया है ) त्रिगुप्त ( मन वचन काय को गोपने वाले ) षट् संयम (षट् नीव निकायों का रक्षण करने वाले ) पंच निग्रहण ( पांच इन्द्रियों का निग्रह करने वाले ) धीर ( धैर्यवान् ) निम्रन्थ ( वास चाभ्यन्तर परिग्रह से मुक्त) जुदर्शी ( सब प्राणियों को सरल भाव से देखने वाले ) ऐसे निम्रन्थ श्रमण ग्रीष्म ऋतुओं में सूर्य का ताप सहते हैं, शीत ऋतुओं में खुले शरीर और वर्षा ऋतुओं में मकानों अथवा गुफाओं में आश्रय लेकर संयम रखते हुए सम्बधि पूर्वक रहते हैं। - परिषह-रूप शत्रों को दमन करने वाले, मोह को जीतने वाले
और जो जितेन्द्रिय हैं, वे महर्षि सर्व दुःखों का क्षय करने के लिये पुरुषार्थ करते हैं । दुष्कर कामों को करके दुस्सह परिषहों को सह कर कई देव लोकों में उत्पन्न होते हैं । तब कई कर्म रूपी रजों को दूर करके सिद्धि को प्राप्त होते हैं, संयम और तपों द्वारा पूर्व भवोपार्जित कर्मों का क्षय कर सर्व जीवों के रक्षक कर्ममुक्त होकर मोक्ष मार्ग को प्राप्त हुए।