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( २३० ) अर्थ-अहिंसा, संयम, और तप यह धर्म है, और उत्कृष्ट मङ्गल है, जिसके मन में धर्म वसता है उसको देव भी नमस्कार करते हैं ॥१॥ ___ जैसे वृक्ष लताओं के पुष्पों पर बैठ कर भौंरा उनका मकरन्द रस पीता है, पुष्पों को पीडित नहीं करता, और रस-पान से अपनी आत्मा को सन्तुष्ट करता है । इसी प्रकार लोक में जो विगत तृष्ण श्रमण हैं, जो साधु कहलाते हैं, पुष्पों पर भौंरों की तरह गृहस्थों द्वारा दिये जाने वाले भोजन की तलाश में तत्पर रहते हैं। ॥ २-३॥
हम भी गृहस्थों द्वारा अपने लिये बनाये हुए भोजन पानी में से थोड़ा थोड़ा प्राप्त कर अपनी जीविका प्राप्त करते हैं, हमारी इस घृत्ति से किसी को दुःख नही होता, जैसे भौरों से पुष्पों को नहीं होता ॥शा _ जो ज्ञानी हैं, निश्रा हीन हैं, मधुकर समान अनेक घर के अन्न पिण्ड की खोज में रहते हैं, और इन्द्रियों को वश में रखते हैं, उसी कारण वह साधु कहलाते हैं ॥५॥
जैन निम्रन्थों का सामान्य आचार _यों तो सारे "दशवैकालिक सूत्र” तथा “आचाराङ्ग सूत्र" निम्रन्थ श्रमणों के आचार विधान से ही भरे पड़े हैं। उन सबका सारांश भी इस इस स्थल पर लिखना अशक्य है, तथापि यहां पर."दशवकालिक" के तृतीय अध्ययन की गाथाओं से जैन श्रमण