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भुजियां जिंधिच्छा दव्वल्यं पटिबिनेत्वा एवं तं रतिं भुक्षित्वा "रति दिषं वीति नामेय्य अथ खो असुयेव मे पुरिमो भिक्खू पुज्जतरो च पासंतरो च तं किस्स हेतु । तं हि तस्स मिखवे भिक्खुनो दीघरत संतुठिया सल्लेख तया सुभरतया विरिया रम्भाय संवत्तिस्सति । तस्मातिह मे भिकूखवे धम्म- दायाद भवथ मा मिस दायाद ।
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अगर
अर्थ: - ( बुद्ध कहते हैं ) हे भिक्षुओ! यहां मैं भोजन कर निपट चुका था, मैंने ले लिया था, र सुख में बैठा था, मेरे भिज्ञान में से कुछ बचा था. वह छोड देने योग्य था । उस समय दो भिक्षु ये धाकान्त और दुर्बल बने हुए। उनसे मैंने कहा हे भिक्षुओ। मैं भोजन कर चुका हूँ, जितना प्रयोजन था उतना आहार मैंने ले लिया अब भिक्षान जो बचा हुआ है, वह फेंक देने योग्य है। अगर तुम्हारी इच्छा हो तो इसे तुम खा लो, तुम न खाओगे तो मैं इसे बिना हरियाली के भूमि भाग में 'छुड़वा दूंगा, अथवा निर्जीव पानी में घुलवा दूंगा। बुद्ध की यह बात सुन कर उनमें से एक भिक्षु के मन में यह विचार आया यद्यपि भगवान् भोजन कर चुके हैं इनको जितने की आवश्यकता थीं उतना आहार ले लिया है अब जो आहार शेष बचा है वह फेंक देने योग्य है । इस श्रहार का हम भोजन न करेंगे तो भगवान् इसे अल्प हरित भूमि में छुड़वा देंगे अथवा जन्तु रहित जल में घुलवा देंगे। परन्तु भगवान् ने यह कहा है कि हे भिक्षु श्रो ! तुम मेरे धर्म के दायाद बनो आमिष के दायाद न बनो ।
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