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यद्यपि ऋग्वेद के कुछ सूक्तों में मांस शब्द का प्रयोग हुआ है, परन्तु वे सूक्त प्राचीन ऋग्वेद में पीछे से जोड़ दिये गये हैं, ऐसी हमारी तथा अनेक विद्वानों की मान्यता है । शुक्ल यजुर्वेद के अश्वमेध प्रकरण में अनेक पशुओं की हिंसा की चर्चा है जो इस संहिता के रचयिता विद्वान याज्ञवल्क्य के वाजसनेय होने का परिणाम है । इन्हीं की बदौलत यज्ञों में कुछ समय के लिये हिंसा खूब बढ़ चली थी, परन्तु अथर्ववेद के समय में यह हिंसा का प्रचार रुक पडा था । अथर्ववेद में बन्ध्या गौ के वध का प्रसङ्ग आता अवश्य है, परन्तु इसी वेद में अन्य स्थलों में मांस खाने का निषेध भी किया गया है । इससे ज्ञात होता है कि आध्यकार यास्क के समय तक पशु यज्ञ और मांस भक्षण बहुत ही मर्यादित हो गया था । इसी कारण से यास्क ने मांस शब्द की जो व्युत्पत्ति की है उसमें प्राण्यङ्ग मांस को नहीं वनस्पत्यङ्ग मांस को ही लागू करना चाहिए | यहां मांस शब्द प्राण्यङ्ग रूप नहीं किन्तु फल मेवों के गर्भ
थवा पिष्ठान आदि से बनाये गये मिष्टान्न भोजन के अर्थ में प्रयुक्त हुआ है। मांस शब्द की व्याख्या करते हुए आचार्य यास्क कहते हैं
मांसं माननं वा मानसं वा मनोऽस्मिन् सीदति वा ।
अर्थ- मांस कहो, मानन कहो, मानस कहो, ये सब एक ही अर्थ के प्रतिपादक पर्याय नाम हैं, और ये उस भोजन का नाम है, जो आगन्तुक माननीय मेहमान के लिये तैयार किया जाता था जिसे देख कर अतिथि का मन खाने में लग जाता और वह समताकि मेरा बडा मान किया गया ।