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अर्थ - वर्षा निवास रहे हुए निग्रंथ निर्ग्रथिनियों को जो हृष्ट पुष्ट शरीर निरोग और बलिष्ठ शरीर वाले हैं, ये नवरस विकृतियां बार बार लेनी नहीं कल्पती है, वे रस विकृतियां ये हैं, क्षीर (दूध ) दधि (दही) नवनीत (मक्खन) सर्पिष (घी) तैल, गुड, मधु (शहद) मद्य (सन्धान जल ) मांस ( पक्वान्न)
सूर्य्यप्रज्ञप्ति सूत्र में नक्षत्र भोजन
किस नक्षत्र के दिन किस प्रकार का भोजन करके जाने से कार्य सिद्ध होता है, इस बात को लेकर अट्ठाइस नक्षत्रों के भोजन चताये गये हैं । जो नीचे उद्धव करते हैं
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८ - " तर कहं ते भोयरा आहिताति वदेज्जा १ वा ए एसिणं अट्ठाविसाए णं णक्खचाएं" -
१ – कत्तियाहिं दधिरणा भोया कज्जं साधियंति 1 २ - रोहिणीहिं ससमसं भोश्चा कज्ज साधेंति । ३ - संठागाहिं मिगमंसं मोचा कज्जं साधिति । ४ - अदृदाहिं खबणीतेन भोच्चा कज्ज साविति । ५- पुण्व्बसुनाऽथ घतेण भोच्चा कज्जं साधिति 1 ६ - पुस्सेणं खीरेण भोश्चा कज्जं साधिति । ७- अस्सेसाए दीवयमंसं भचा कज्जं साधेंति । ८ - महाहिं कसोति भोचा कज्जं साधेंति ।
- पुव्वाहि फग्गुणीहिं मेदकमंसं भोषा कज्जं साधेंति । १० - उत्तराहिं फग्गुणीहिं णक्खीमंसं भोश्चा कज्जं साधेंति ।