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अन्तिम धातु को रेतस् अथवा बीर्य आदि नाम प्राप्त हैं, वैसे वनस्पतियों में भी अमुक प्रकार की शक्तियां रहती हैं, जिनका शीत वीर्य उष्ण वीर्य आदि नामों से व्यवहार होता था, और श्राज भी वैद्य लोग उस प्रकार व्यवहार करते हैं ।
भारतवर्ष में पूर्व काल में जितनी और जितने प्रकार की वनस्पतियां होती थीं, उनकी एक शतांश भी नहीं रही हैं । उस समय के मनुष्य प्रायः इन्हीं वनस्पतियों के अंगों, प्रत्यंगों फलों, पुष्पों से अपना जीवन निर्वाह करते थे । पश्वङ्ग मांस से उनका कोई सम्बन्ध नहीं रहता था । मृत पशुओं, पक्षियों को खाने वाले गीध, गीदड़, भेडिया, चीता, बघेरा, आदि क्रव्यादपक्षियों श्वापदों के सिवाय कोई नहीं था ।
वनस्पत्यंगों और प्राण्यंगों की समानता
आज कल हमारे देश में वनस्पतियों का दुष्काल सा हो रहा है, जो अत्यल्प संख्या रही है उनके अंग प्रत्यंगों का भी प्रास्यंगों से कितना साम्य है, उसका संक्षिप्त दिग्दर्शन करायेंगे ।
“ऐतरेयब्राह्मण". " में यव ब्रीहि को पशु का प्रतिनिधि मान कर पशुओं के अंग प्रत्यंगों की जो तुलना की है उसे रोम शब्द की