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प्रत्येक नाम सदा के लिए एक ही अर्थ में प्रयुक्त नहीं होता, कई ऐसे नाम हैं जो प्रारम्भ में एकार्थक होते हुए भी हजारों वर्षों के बाद अनेकार्थ बन चुके हैं । जैसे-अक्ष, मधु, हरि, आदि नाम कई अनेकार्थक नाम हजारों वर्षों के बाद एकार्थक बन जाते हैं । जैसे मृग, फल, मांस आदि ।
कोशकार अपने समय में जो शब्द जिस अर्थ का वाचक होता है, उसी अर्थ का प्रतिपादक बताते हैं । विलीन अर्थों की अथवा भविष्यदर्थों की कल्पना में कभी नहीं उतरते ।
ज्यों ज्यों जिस पदार्थ के नाम बढ़ते जाते हैं, त्यों त्यों पिछले कोशकार अपने कोश में संग्रह करते जाते हैं । अमरसिंह ने मांस के छः नामों का निर्देश किया तब इन के छः तथा सात सौ वर्ष पर अर्थात् विक्रम की ग्यारहवीं शताब्दी में होने वाले वैजयन्ती तथा अभिधान चिन्तामणि कोशों में क्रमशः वारह तथा तेरह नाम संग्रह हुए हैं। जैसे—
"मांसं पललजांगले । रक्तान्तेजो भवे क्रव्यं, काश्यपं तरसामिषे ||६२२|| मेदस्कृत् पिशितं कीनं पलम् ।
( अभिधान चिन्तामणि ) अर्थात्-मांस, पलल, जांगल, रक्ततेज, रक्तभव, क्रव्य, काश्यप, तरस, आमिष, मेदस्कृत् पिशित, कीन और पल ये तेरह मांस के नाम अभिधान चिन्तामणि मे लिखे हुए हैं । वैजयन्ती में जांगल यह नाम नहीं मिलता ।
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