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अप रही चौराहे पर गाय का मांस बिकने की बात सो यह भी श्री कौशाम्बी ने ठंडे प्रहर की एक गप्प ही हांकी है। कौशांबी जिस समय की बात कहते हैं उस समय चौराहे पर तो क्या गौमांस भक्षियों के लिए स्पप्न में भी गौ-मांस के दर्शन दुर्लभ होगये थे, सिवाय चमार के गोमांस किसी को दृष्टिगोचर तक नहीं होता था। अंग-मगध, काशी - कौशल, आदि देशों में बैल, बछड़ा, गौ श्रवध्य करार देने वाले राजकीय, कायदे गो-बध पर कठोर प्रतिबन्ध लगाये हुये थे। जिनका अस्तित्त्व मौर्य राज्यकाल तक बना रहा और किसी ने गौवध नहीं किया । ब्राह्मणों के धर्मशास्त्रों में ही नहीं बल्कि तत्कालीन अर्थशास्त्रों में भी गोबध न करने कराने के नियम बने हुये थे, जिनका भंग करने वालों को कड़ी शिक्षा मिलती थी । एक बाज्ञवल्क्य के सिवा न किसी धर्मशास्त्रकार ने गौ को मध्य माना, और वैदिक धर्मशास्त्रों के अनुसार बनने वाले किसी अर्थशास्त्र ने गोवध करने वाले को निरपराध ठहराया ।
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मौर्य सम्राट् चन्द्रगुप्त के राज्यशासन का सूत्रधार कौटिल्य अपने अर्थशास्त्र में लिखता है
'मृगपशूनामवस्थिमांसं सद्योहतं विक्रीणीरन् । अस्थिमतः प्रतिपातं दद्युः । तुलाहीने हीनाष्टगुणम् । वत्सो वृषो धेनुश्चैषामवध्याः ।
यातः पञ्चाशत्कोदण्डः । क्रिष्टघातं घातयतथ । परिवनमशिर - पादास्थि विगन्धं स्वयं मृतं च न विक्रीणीरन् । अन्यथा द्वादशपणो दण्डः । कौटि० प्रर्यशा० पृ० १२२-२३