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( १११ ) . यह मत जैन श्रमणों को पसन्द नहीं आ सकता था, क्योंकि वे बार बार सपश्चर्या करते थे। तथापि उन्होंने मांसाहार का सम. र्थन इसी ढंग से किया होगा, क्योंकि वे पूर्वकालीन सपस्त्रियों के समान जंगल के फल-मूलों पर निर्वाह नकरके लोगों की दी हुई मिक्षा पर निर्भर रहते थे, और उस समय निर्मासमत्स्य भिक्षा मिलना असम्भव था । ब्राह्मण लोग यज्ञ के हजारों प्राणियों का वध करके उनका मांस आसपास के लोगों में बांट देते थे। गांव के लोग देवताओं को प्राणियों की बलि चढ़ाकर उसका मांस खाते थे। इसके अतिरिक्त कसाई लोग ठीक चौराहे पर गाय को मारकर • उसका मांस बेचते रहते थे। ऐसी स्थिति में पक्व अन्न की भिक्षा पर निर्भर रहने वाले श्रमणों को मांस-रहित भिक्षा मिलना.कैसे सम्भव हो सकता था ?
श्री कौशाम्बीजी के दो उपर्युक्त वक्तव्य की दो बातों पर हमें : विचार करना है। एक यह कि उस समय 'ब्राह्मण लोग यज्ञ में । हजारों प्राणियों का वध करके उनका मांस आसपास के लोगों में - बांट देते थे। दूसरी बात यह कि 'कसाई लोग ठीक चौराहे पर गाय को मारकर उसका मांस बेचते रहते थे।'
• ब्राह्मण लोगों द्वारा यज्ञ में हजारों प्राणियों का वध कर गांव में मांस बांटने की बात कोरी डोंग है, क्योंकि प्रत्येक घरमें होने काले यज्ञोंमें पशुबध सर्वथा वलित था, केवला मधुपर्क-चौर अष्टका श्राद्ध में मांस का प्रयोग होता था। परन्तु इन प्रसङ्गों में भीगवान् महावीर तथा बुद्ध के समय में पशुबध करना लगभग भूत