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प्रयोग बताते थे, क्योंकि वे यज्ञों के पक्के अनुयायी थे, और उन के समय में निघण्टु आदि का लोप हो जाने के कारण यज्ञों में पशुबलि चल पड़ा था ।
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याज्ञवल्क्य प्रविधि जात मांस भक्षण को भयङ्कर पाप मानते । यह बात हम इन्हीं के वचनों से प्रमाणित कर सकते हैं । याज्ञवल्क्य स्मृति के भया भगप्रकरण में याज्ञवल्क्य लिखते हैं ।
देवतार्थं हविः शिग्रु, लोहितान् ब्रश्चनांस्तथा । अनुपाकृतमांसानि विड्जानि कवकानि च ॥ १७१ ॥ " याज्ञ० स्मृति" पृ० १७
- देवतार्थ प्रस्तुत किया गया हव्य, सहेजना, वृक्षों का रक्त निर्वास, वृक्षच्छेद से निकलने वाला रस, यज्ञ-बलि विना का मांस, विष्ठा में उत्पन्न होने वाले पत्र शाक, और छत्राक इन सब का त्याग करे ।
मांस भक्षण के विषय में याज्ञवल्क्य का मन्तव्य
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अतः शृणुध्वं मांसस्य, विधिं भक्षण वर्जने ॥ १७८ ॥ प्राणात्यये तथा श्राद्ध, प्रोक्षिते द्विजकाम्यया । देवान् पितृन् समभ्यर्च्य, खादन् मांसं न दोषभाक् ।। १७६ ।।