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(६८ ) पाया । इसी लिये अब भी लोग इन दोनों को खोद कर पाते हैं । जो मनुष्य इस कथा को जानता है उस को ( चावल आदि ) का हव्य देने से उतना ही फल होता जितना कि इन सब पशुओं के बलि करने से।
[अ.८ पृ. १५८ ] - इसके पूर्व दी गयी ऐतरेय ब्राह्मण की अमेध्य सूची में किंपुरुष, गवय, उष्ट्र, शरभ, इन नामों का भी उल्लेख मिलता है। परन्तु इन की क्रमबद्धता, ठीक ज्ञात नहीं हुई, इस कारण इन नामों को हमने कोष्ठक में रख दिया है । ऐतरेय ब्राह्मण तथा शत पथ ब्राह्मण के समय से ही पशुयज्ञों की वृद्धि के बदले उनकी निर्जीवता होने लगी थी । यज्ञ में जो भी पशु बलिदान के लिये मारा जाय, वह मेध्य होना चाहिए यह ब्राह्मण ग्रन्थों का अटल नियम था । मनुष्य, अश्व, बैल, भेड़ बकरों के मेध्य न होने के कारण यज्ञों में इतना पशुवध नहीं होता था, जितना अवैदिक विद्वान् मानते हैं । बहुतेरे पशु पक्षियों को पहिले से ही अमेध्य मान रक्खा था, इसलिये उन्हें यज्ञों के काम में नहीं ले सकते थे, और बैल भेड़ बकरे आदि अमेध्य हो जाने के बाद यज्ञों में से मांस और बया उठ से गये थे, केवल पितृ कार्य और मधुपर्क में मांस रह गया था, परन्तु इन दो कामों में भी मांस का उपयोग कम होता जाता था। यज्ञ में तो गौ अमेध्य उद्घोषित हो ही गया था, और मधुपर्क में भी अर्हणीय गौ का उत्सर्ग करवा देते थे, परिणाम स्वरूप मांस का स्थान पिष्ट साधित कृत्रिम मांस लेता जाता था। यही बात पितृ कार्य में भी थी । श्राद्ध जीमने वाले ।