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( ८३ ) देखा तो अन्त ही देखा, पशुबन्ध यज्ञ किया और देखा तो अन्त ही देखा अग्निष्टोम से यज्ञ किया और देखा तो अन्त ही देखा, राजसूय यज्ञ करके राजा नाम धारण किया और अपना अन्त ही देखा, वाजपेय यज्ञ करके सम्राट् पद प्राप्त किया पर देह का अन्त ही देखा,अश्वमेध यज्ञ कर के स्वाराट् पद प्राप्त किया और देखा तो अपना अन्त ही देखा, उसने पुरुषमेध यज्ञ करके विराट यह पद धारण किया और देखा तो अपना अन्त ही देखा, सर्वमेध करके सर्वराट् पद धारण किया और देखा तो अपना अन्त ही देखा, उसने अहीन दक्षिणावत् यज्ञ किया और देखा तो अपना अन्त ही देखा, हीन दक्षिणावत् यज्ञ किया और देखा तो अपना अन्त ही देखा, उसने अन्त में सत्र द्वारा दो अतिरात्र तक यज्ञ किया, अपनी वाचा होता को अर्पण की, प्राण अध्वर्यु को, नेत्र उद्गाता को, मन ब्रह्मा को अन्यान्य अङ्गों को होतृकों को,
और आत्मा को सदस्यों को प्रदान करके आनन्त्य लाभ किया उसने जो दक्षिणा दी थीं उनसे आत्मा को ऋण-मुक्त कर इस ज्योतिष्टोम से अग्निष्टोम से आत्मा की ऋण-मुक्ति से सहस्रदक्षिणा बाले पृष्ठशमनीय के लिए जल्दी करे, जो पृष्ठशमनीय द्वारा इष्टि न कर परलोक जाता है, वह आत्मा का निष्क्रयण न करके जाता है यह ब्राह्मण समूह का मत है।
याक्रम और प्रजापति के अनुष्ठान के वर्णन से जो फलित होता है, वह यही कि प्रारम्भिक छः या साधारण और समय प्रतिबद्ध यज्ञ थे, इनमें पशुबलि का कोई विधान मालूम नहीं