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पूर्व भाग ५ प्रपा० ० ५६ "गोपथ ब्राह्मण"
अर्थात- अब यज्ञ क्रम कहते हैं सर्व प्रथम अन्याय ( घर में अभिस्थापन सम्बन्धी अनुष्ठान ) । अग्न्याधेय के बाद पूर्णाहुति ( अनि चयन सम्बन्धी कार्य की समाप्ति का अनुष्ठान ) - पूर्णाहुति के बाद अग्निहोत्र ( देवताओं की तुष्टि के अर्थ अभि में दी गई खाद्य पदार्थों की आहुतियां), अग्निहोत्र के बाद दर्श पूर्ण मास अमावस्या और पूर्णिमा को किये जाने वाले यज्ञ-विशेष', दर्श पूर्णमास के बाद आग्रहायण ( नये धान्य की इष्टि ) - हार के बाद तीन चातुर्मासादिक यज्ञ, चातुर्मासिकों के बाद पशुबन्ध, पशुबन्ध के बाद अभिष्टोम अग्निष्टोम के बाद राजसूय, राजसूय के बाद वाजपेय, वाजपेय के बाद अश्वमेध अश्वमेध के बाद पुरुषमेध, पुरुषमेध के बाद सर्वमेध, सर्वमेध के बाद दक्षिणावान्, दक्षिणावान् यज्ञ के उपरान्त प्रदक्षिणयज्ञ, प्रदक्षिणयज्ञ हजार सुवर्ण दान पर जाकर रुकते थे । इस प्रकार यज्ञों का क्रम है ।
उपर्युक्त क्रमशः एक से अधिक आयोजन और खर्च से निष्पन्न होते थे, इन सभी यज्ञों का फल, अन्तवान् होता था । लौकिक फल प्राप्ति की श्राशा के अतिरिक्त श्रात्मिक उन्नति का इनमें कोई संकेत नहीं होता था । इस प्रकार के यज्ञों का अनुष्ठान कराने वाले प्रजापति के दृष्टांत से इस विषय को समझायेंगे |
'प्रजापतिरका मयतानन्त्यमश्नूयेति
सोमीनाधाय पूर्णाहुत्या यजेत सोऽन्नमेवापश्यत् सोऽग्नि