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प्रवृत्तियों से है। परन्तु पिछले टीकाकारों के इस प्रकार के समा. धानों से हिंसामय प्रतिपादनों की वास्तविकता छिपायी नहीं' जा सकती। इतना तो हमको कहे बिना नहीं चलता कि महर्षि याज्ञवल्क्य और उनके अनुयायी ब्राह्मणों ने वेदों की मौलिक संस्कृति को पर्याप्त रूप से परिवर्तित कर दिया था, उसी के परिणाम स्वरूप पिछले श्रौत सूत्रों, धर्मसूत्रों और गृह्य सूत्र के निर्माताओं ने खास यज्ञों में, पितृकर्मों में यथा मधुपर्क आदि में मांस को आवश्यकता बतायी है, जो परमार्थतः अनावश्यक
ब्राह्मणकालीन यज्ञ यज्ञ शब्द 'यज् धातु' को 'न' प्रत्यय लगने पर बनता है। और इसका अर्थ पूजा अथवा दान होता है 'इज्यते हषिर्दीयतेऽत्र इति यज्ञः' अथवा 'इज्यते पूज्यते देवताऽत्र इति यज्ञः' । इस प्रकार मूल में यज्ञ यह अनुष्ठान देवताओं की पूजा के निमित्त किया जाता था, और उसमें घृत यव ब्रीहि आदि से बने हुये पुरोडाश की आहुतियां दी जाती थीं । परन्तु ज्यों ज्यों पुरोहितों को इन अनुष्ठानों से अधिकाधिक लाभ होता गया, त्यों त्यों अनेक बड़े बड़े यज्ञों की सृष्टि करते गये । प्रारम्भ में प्रत्येक अधिकार प्राप्त वैदिक धर्मानुयायी गृहस्थ अपने घर में पांच प्रकार के यज्ञ करते थे_ 'यदधीते स ब्रह्मयज्ञो, यज्जुहोति स देवयज्ञो, परिपतृभ्यः स्वधा' करोति स पितृयज्ञो, यद्भुतेभ्यो वलि हरति स मूर्तयज्ञो, यामणेभ्योऽन्नं ददाति स मनुष्य यज्ञः इति ।।६। पते पैश्चमहायज्ञाः ।