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र्गत कर दिया । यह तो हुई निघण्टु की बात, अब हम यास्क के निरुक्त भाष्य के विषय में कुछ लिखेंगे।
निरुक्त के चतुर्थ अध्याय में कुल ६२ पद हैं। जिनका भाष्य करते हुए यास्क ने चंबालीस पदों को अनवगत प्रकट किया है। इसी तरह निरुक्त के पञ्चम अध्याय में ८४ पद हैं, जिनमें से ६२ पदों को यास्काचार्य ने अनवगत होने का लिखा है । इसी तरह षष्ठ अध्याय के १३२ पदों में से १२५ अनवगत उद्घोषित किया है । इसका अर्थ यह हुआ कि जिन जिन पदों को इन्होंने अनवगत कहा है उनका परम्परागत अर्थ यास्क को मालूम नहीं था। इसलिए उन्होंने अपनी बुद्धि से दूसरा अर्थ कल्पित करके उन निगमों को व्यवस्थित किया। इस विषय में हम एकही उदा. हरण देकर निरुक्त को अपूर्णता और अव्यवस्थितता दिखायेंगे। ___ ऋग्वेद की एक ऋचा में "शिताम" शब्द आया है जिसका भाष्य करते हुए यास्काचार्य लिखते हैं। -
"शिताम" ।।३।। मूलम् ' "पार्वतः श्रोणितः शितामतः” ( या० मा०.) पार्श्व पशु मयभङ्ग भवति । पशुः स्पृशते संस्पृष्टवा पृष्ठदेशम् । पृष्ठं स्पृशते संस्पृष्टमङ्गः । अंगमगनादञ्चनाद्वा । श्रोणिः श्रोणतेर्गति चलनकर्मणः श्रोणिश्चलतीव गच्छतः । दोः शिताम भवति । दो द्रवतेः। योनिः शितामेति शाकपूणिः विषितोभवति । श्यामतो यकृत्त इति तैटीकिः । श्यामं श्यामयतेः । यकृत् यथा कथा च । कृत्यते । शितिमांसतो मेदस्त इति मालवः ।