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प्रविष्ट हुई उसने वैदिक सभ्यता और धार्मिक अनुष्ठानों का स्वरूप बदल डाला। पहले जहां निर्दोप अन्न और सोम रस द्वारा देवताओं को सन्तुष्ट किया जाता था, वहां सजीव पशुओं का बलि होने लगा, सोमके स्थान में मदिरा ने अपना स्थान जमाया । इस स्थिति का सामान्य दर्शन शुक्लयजुर्वेद में होता है। निघण्टु और निरुक्तों के अभाव से उत्पन्न होने वाली इस परिस्थिति से बड़े बड़े विद्वान् परेशान थे, और वैदिक शब्द कोशों तथा निरुक्तों की खोज में लगे हुये थे । और इस खोज में यास्क आदि कई ऋषियों को वैदिक निघण्टु और निरुक्त हाथ भी लगे । परन्तु वे सर्वाङ्गीण नहीं केवल मूल वस्तु का अवशिष्ट अंशमात्र थे। टिप्पणी १, महाभारत मोक्ष पर्व ३४२ अध्याय ६९-७०-७१ श्लोकों में नष्ट निरुक्तों के विषय में नीचे के अनुसार सूचित किया है
शिपि विष्टेति चाख्यायां, हीनरोमा च यो भवेत् । तेनाविष्ट तु यत्किञ्चित् शिपिविष्टेति च स्मृतः ।।
यास्को मामृषिरव्यग्रो, ऽनेकयज्ञेषु गीतवान् । ..शिपिविष्ट इति ह्यस्मा, गुह्यनाम धरोह्यहम् ॥ .
श्रत्वा मां शिपिविष्टेति, यास्कऋषिरुदारधीः । - मत्प्रसादादधो नष्टं, . निरुक्तमधिजग्मिवान् ॥
: अर्थ-शिपिविष्ट इस माम का अर्थ हीनरोमा और सब बीटने वाला ऐसा होता है, जिस समय मैं शिपविष्ट के गुह्यरूप में फिरता था, तब यास्क ऋषि ने सावधानी से मुझे पहिचाना और