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... बलि शब्द से उत्पन्न भ्रम " __चैदिक ग्रन्थों में आये हुए बलि शब्द ने आधुनिक सिद्धाने
__EER IS STRY में काफी भ्रांति उत्पन्न करदी है, वास्तव में बलि शब्द का अर्थ दान होता है, 'बल दाने' इस धातु से विल्यतै दीयत इति वाला। अर्थात् देवता को चढाने का उपहार इस वलि शब्द को यह वास्तविक अर्थ न समझकर अनेक विद्वान् मान बैठे कि वेदों के समर्थ मैं भी पशुबलि की प्रथा थी। उनकी इस मान्यता में चेदों में पीछे से जोड़े मये सूक्त तथा ऋचाओं ने भी सहकार दिया । (और मूल ऋग्वेद संहिता तथा सामवेद के बाद के चेदों और ब्राह्मण ग्रंथों में भी प्रक्षिप्त ऋचाओं के आधार से वैदिक यज्ञों में पशुबलि होने का अभिप्राय निश्चित किया, याज्ञवल्क्य जैसे ब्रह्मचादी विद्वानों ने शतपथ ब्राह्मण में और उसके पीछे के ब्राह्मणों और श्रौतसूत्रों में पशुबलि की प्रथा दाखिल करदी।
ऋग्वेद कालीन यज्ञों की वास्तविक स्थिति तो यह थी कि वे केवल जौ ब्रीहि और सोम रस की सामग्री से निष्पन्न होते थे। गोपथ ब्राह्मण के--
"याज्यया यजति, अन्न वै याज्या, अन्नाद्यमेवास्य तत्कल्पयति । .. मूतं वा एतद् यज्ञस्य पद्धायाश्च याज्याश्च" ॥२२॥ ..
.. उ० भा० ३ प्रपा० पृ० ११४ इन शब्दों से भी हमारे उपयुक्त कथन का पूर्ण समर्थन होता है । इष्टि से पूजता है और अन्नोपहार ही पूजा है, जिसमें अन्न खाद्य है ऐसे यज्ञ को प्रस्तुत करता है और यही ग्रंज्ञ का मूल है। .