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बम्बई वुलाकर अपने तत्त्वावधान में ही इस विलक्षण मूर्ति का निर्माण करवाया। जो वास्तव । अनुपम और अद्वितीय थी। वालकेश्वर मंदिरमे अपने हाथों से प्रतिष्टित भ. कवार -
तत्पश्चात् तो इस माँ पद्मावती मूर्ति के अनुकरण पर पचासों स्थानों पर पद्मावती देवी के मूर्तियो की प्रतिष्ठाएँ हुई। ये प्रतिष्ठित मूर्तियाँ न केवल चमत्कारी ही हैं बल्कि भक्तो के अभीप्सित मनोरथों को पूर्ण भी करती हैं। जहाँ-जहाँ भी इसके अनुकरण पर मूर्तियाँ स्थापित
हुई है, वहाँ-वहाँ इन स्थानो पर देवी माँ की उपासना करने के लिए जनता की भीड़ लग में रहती है। वस्तुतः इस प्रकार की आगम-शास्त्रीय और वास्तु-शास्त्रीय मूर्तिया के अभ्युदय का सारा श्रेय आचार्यश्री को दिया जा सकता है।
जैन-मंदिरों में लक्ष्मी देवी की स्थापना प्रायः कहीं भी देखने में नहीं आता है। शास्त्राधार से और अपनी कल्पना शक्ति से लक्ष्मी देवी की मूर्ति का निर्माण करवाकर वालकेश्वर मंदिर में स्थापित की। यह आचार्यश्री का अनूठा प्रयोग था!
चित्र और मूर्तिकला के अतिरिक्त स्थापत्य कला में भी इनका पूर्णाधिकार है। सिद्धक्षेत्र : साहित्य मंदिर की संरचना इन्हीं के विचारों के अनुरूप हुई, जो वास्तव में दर्शनीय है एवं दर्शकों को भी आकर्षित करती है। सिद्धक्षेत्र आगम मंदिर के निर्माण में भी इनके विचार को प्रमुखता दी गई है। लेखन कला
जैन ज्ञान भण्डारों में सुरक्षित ताडपत्रीय और हस्तलिखित ग्रन्थों की लिपि का पटनपाटन और प्रति-लेखन भी समाप्त प्रायः हो गया है। जैनाचार्यों एवं जैन-श्रेष्टियों प्रवर्तित स्वर्णाक्षरी, रजताक्षरी और गंगा-यमुनी स्याही का प्रयोग भी नहीं के समान होता जा रहा है। भावि-पीढ़ी इसके पुरातन स्वरूप को समझ सके इसलिए इन्होंने कई प्रयोग करके स्वर्णाक्षरी में दर्शनीय कल्पसूत्र भी लिखवाये। सोनेरी स्याही किस प्रकार बनाई जाए, इसका इलम-जानकारी भी आचार्यश्री को है और इसमें ये सफल भी हुए हैं। इनके द्वारा स्वर्णाक्षरी में लिखापित शास्त्र की यह विशेषता है कि प्रत्येक पत्र पर विविध प्रकार के वोर्डरों का , भी अखतरा-प्रयोग किया है, वोर्डरों से प्रतिमें जान आ गई है। अभिवादन
६० वर्ष की दीर्घ अवस्था और उत्पन्न व्याधियों के कारण शय्या-पथारी में लेटे हुए भी प्रत्येक समय यही चिन्तन करते रहते हैं कि उन चित्रों का प्रकाशन करना है, उन ग्रंथों का प्रकाशन करना है, उन विद्वानो से सहयोग लेना है। उनकी कार्यों की प्रति 57 प्रका