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उपसंहार
__ जैन धर्म अत्यन्त प्राचीन है और उसका दर्शन बड़ा ही सहिष्णु है। आज के युग में व्यक्ति और समाज, राष्ट्र व विश्व पृथक-पृथक् नहीं रह सकते; सबके बीच सामीप्य उद्भूत होने ‘विश्व-मानव' एवं 'वसुधैव कुटुम्बकम्' का प्राचीन संकल्प वर्तमान होता दीख पड़ रहा है। वर्तमान युग में पूरे विश्व के मानव-मानव का सम्बंध संपृक्त हो चुका है, जिसकी घोषणा जैन धर्म ने मानव-प्रेम व समानता के सिद्धान्त द्वारा हजारों वर्षों पूर्व कर दी थी। अपने उदात्त तत्त्वों के द्वारा उसने मानव-मानव के बीच प्रेम व अहिंसा पूर्ण व्यवहार का संदेश दिया है। जैन धर्म व दर्शन अहिंसा, सत्य, प्रेम व समभाव के उदात्त तत्त्वों के द्वारा उदार चरित्रों की सृष्टि प्राचीन काल से करता आया है। इसके उदात्त तत्त्व मानव को आत्मदर्शी बनने के लिए उत्साहित करते हैं। व्यक्ति को अपने भाग्य का निर्णय करने की स्वतंत्र-चेतना जैन दर्शन प्रदान करता है और जैन साहित्य उसका लोक-मानस में प्रचार-प्रसार करता है। वह व्यक्ति को अथवा समष्टि को परमुखापेक्षी या परावलम्बी बनने का उपदेश नहीं देता। "प्राणी मात्र के कल्याण व शक्ति की उसकी भावना सदैव स्तुत्य रही है। यह बात भिन्न है कि इसके उच्चतम तत्त्वों का सामान्य जनता में यथायोग्य प्रसार नहीं हो पाया है या रसात्मक साहित्य के द्वारा आधुनिक वातावरण के अनुरूप इसका संदेश फैलाया नहीं गया है। वैसे आचार्यों का सदैव प्रयत्न रहा है कि इस धर्म के उदात्त तत्वों का जन-जन तक व्यापक प्रचार हो; लेकिन प्रतीत यह होता है कि प्रायः जैन समाज तक ही यह प्रयास सीमित रहा है। इसकी उदात्त विचारधारा का आधुनिक युग के संदर्भ में पुनः व्यवस्थित रूप से प्रचार करने की आवश्यकता पैदा हुई है। क्योंकि बौद्ध व जैन धर्म की समानता व समकालीनता के कारण बहुत-सी भ्रांतियाँ पाश्चात्य विद्वानों में उद्भावित हुई थी। लेकिन अब विशिष्ट पाश्चात्य विद्वानों के सद्प्रयासों से इन भ्रांतियों का निराकरण हो चुका है तथा जैन धर्म की विशिष्टता एवं युगीन वातावरण में उसकी उपयोगिता के सम्बंध में पर्याप्त सामग्री प्रकाशित हो चुकी है। आधुनिक जगत् में जैन धर्म के तत्त्वों की उपादेयता के सम्बंध में भारतीय विद्वान् डा.
1. Jean-Dr. Umesh Mishra-'History of Indian Philosophy'Jainism'
Chapter-VIPage-223 के अन्तर्गत।