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विषय-प्रवेश
है। आज के संघर्षशील विश्व में बन्धुत्व की भावना का प्रसार आवश्यक ही नहीं, अपितु अनिवार्य बन चुका है। जिस अहिंसा को हम गांधीवादी दर्शन का मूल मानते हैं, वह जैन धर्म की बहुत बड़ी थाती है। भगवान महावीर ने अपने युग की परिस्थितियों को देखते हुए प्राणीमात्र के प्रति मनसा वाचा व कर्मणा अहिंसा के व्यवहार का संदेश समाज को दिया था। वैसे सभी धर्म अहिंसा को मानव कल्याण के लिए उपकारी समझते हैं, किन्तु भगवान महावीर ने उसे जीवन्त और व्यावहारिक रूप प्रदान किया था। आज के युग में जहां कदमकदम पर हिंसा का नग्न रूप देखा जाता है, वहां अहिंसा का उत्कृष्ट साधन ही मानव को शांति व सुरक्षा प्रदान कर सकता है। अहिंसा के बिना भातृत्व का प्रसार कैसे संभव हो सकता है? आधुनिक वातावारण में जैन दर्शन के तत्वों की आवश्यकता पर प्रकाश डालते हुए विद्वान् जैन मुनि आचार्य यशोविजय जी लिखते हैं- " क्षमा मूर्ति भगवान महावीर के उपदेश का संक्षिप्त सार यह है कि यदि तुम्हें सर्वांगीण विकास साधना हो तो आचार में सर्व हितकारिणी अहिंसा, विचार में संघर्ष शामक अनेकान्त के सिद्धान्त और व्यवहार में संक्लेशनाशक अपरिग्रहवाद को मनसा, वाचा और कर्मणा से अपनाओ। इससे व्यक्ति के जीवन में विश्व बन्धुत्व, मैत्री की भावना, समन्वयवादी दृष्टि और त्याग- - वैराग्य के आदर्श सजीव बनेंगे और इन सिद्धान्तों को यदि सभी लोग न्यूनाधिक रूप से व्यवहार में लायेंगे तो समष्टि समुदाय में अध्यात्मवाद का प्रकाश प्रकट होने पर भय, चिन्ता, अस्थिरता, अशांति, असंतोष, वर्ग-विग्रह, अन्याय, दुर्भावना, धिक्कार, तिरस्कार, कडुवाहट, अविवेक - अविनय, अहंकार जैसे अनेक दोषों-दूषणों का घेरा बना हुआ अन्धकार तिरोहित होगा। परिणामतः सर्वत्र मैत्री, प्रेम, स्नेह, आदर, एकता, सहिष्णुता और शक्ति का बल दृढ़ होगा । +++ यदि विश्व की मनुष्य जाति को हिंसा और त्रासवाद से उबारना होगा तो महावीर के अहिंसा के सिद्धान्त को अपनाये बिना कोई रास्ता नहीं है। व्यष्टि या समष्टि के लिए अहिंसा के अतिरिक्त कोई अन्यतरणोपाय नहीं है, यह एक त्रैकालिक सत्य है।""
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अहिंसा की तरह ही आज के भौतिक युग में अपरिग्रह या परिमित परिग्रह का सिद्धान्त अपनाने से असंतोष तथा भौतिक भोग-विलास की अन्धी दौड़ का अन्त होगा और अनावश्यक वस्तुओं में परिग्रह करने की वृति बन्द होने से स्वतः राष्ट्र की उन्नति संभव हो पायेगी । निरन्तर परिग्रह करते रहने की लालसा से देश के सामने अनेक समस्याएँ खड़ी हो जाती है।
1.
आ. यशोविजय जी - 'तीर्थंकर श्री भगवान महावीर संपादकीय निवेदन, पृ० 6 (35 रंगीन चित्रों का संपुट) ।