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________________ 478 आधुनिक हिन्दी-जैन साहित्य वातावरण व परिस्थितियों का भी ब्योरेवार नहीं, संकेतात्मक वर्णन वांछनीय होता है। अपने आप में गठन की चुस्तता के कारण कहानी को किसी का लघु रूप न स्वीकार कर अपनी विशेषताओं के बल पर सर्वाधिक मनोरंजन प्रदान करने वाली साहित्यिक विधा के रूप में महत्व प्राप्त है। गद्य कथा साहित्य के इस रूप का अपेक्षाकृत अल्पकाल में ही इतना शक्तिशाली विकास हुआ है कि उसकी नपे तुले शब्दों में परिभाषा नहीं दी जाती। केवल इतना कहकर संतोष प्राप्त करना पड़ता है कि कहानी गद्य साहित्य का संक्षिप्त, अत्यन्त सुसंघटित और अपने में पूर्ण रोचक कथा रूप है। लेखक और पाठक के बीच कड़ी रूप यह विधा साहित्य का सबसे स्वाभाविक और स्वच्छन्द रूप है। इसके अनन्त प्रकार अलिखित रूप में भी चलते हैं। प्राण वायु की तरह यह आवश्यक मानी जाती है। उसका लिखित रूप भी किसी न किसी तरह हमारी साहित्यिक चेष्टा का अभिन्न अंग है। उसमें अगणित प्रयोग हुए हैं और होते रहेंगे। मानवीय प्रेषण का वह सरलतम रूप हो सकती है और जटिल व उलझा हुआ भी। वह अत्यन्त व्यवस्थित अभिव्यक्ति का रूप धारण कर सकती है, तो अत्यन्त शिथिल भी। 'सच्चे कहानीकार के हाथ में कहानी, कथानक, विकास और परिणति आदि उसके तथा कथित मूल तत्त्वों से सम्बंध उसके कला-सिद्धान्तों के किसी भी झमेले में न पड़कर अत्यन्त प्रभावशाली बन सकती है। ये तत्व उपयोगी भी हो सकते हैं। और व्यर्थ भी, प्रश्न केवल लेखक का है। लेखक कहानी कला के नियम अपने लिए निर्मित करता है, अपनी शैली के द्वारा ही वह अपनी सफलता या असफलता प्रमाणित करता है। विषय और वातावरण की दृष्टि से जहाँ प्राचीन कहानी में राजा, राजकुमार और राजकुमारियों की प्रणय कथाओं के आधिक्य पर, मानव के बाह्य क्रिया-कलाप व स्वभाव के वर्णन पर दृष्टि रहती है तथा संयोग, आकस्मिक घटनाओं से कुतूहल, आश्चर्य जिज्ञासा को शान्त करने की प्रवृत्ति की अतिरंजकता तथा प्रेम वृत्ति की एकछत्रता है, वहाँ आधुनिक कहानी में सामाजिक समानता की प्रवृत्ति के कारण समाज की सभी संस्थाओं, वर्णों और वर्गों के मनुष्य के व्यक्तिगत जीवन की साधारण घटनाओं को कहानी का विषय बनाया गया है, संयोग और दैवी घटनाओं को कथानक के विकास में केवल साधन मात्र (साध्य नहीं) माना गया है, प्रेम के साथ अन्य प्रवृत्तियों से चित्रण पर भी ध्यान दिया गया है, मानव को देव-दानवों जैसी अति भौतिक सत्ताओं के हाथ का क्रीड़ा-कन्दुक नहीं बनाया गया है, उनकी प्रवृत्तियों का मनोवैज्ञानिक चित्रण किया गया है और जीवन में महत 1. हिन्दी साहित्य कोश, पृ. 213.
SR No.022849
Book TitleAadhunik Hindi Jain Sahitya
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSaroj K Vora
PublisherBharatiya Kala Prakashan
Publication Year2000
Total Pages560
LanguageHindi
ClassificationSmruti_Granth
File Size39 MB
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