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________________ 458 आधुनिक हिन्दी-जैन साहित्य के रूप में ही आया है लेकिन कथा के प्रवाह में यह सारी विचारधारा सम्मिश्रित हो गई है कि दार्शनिक चर्चा कहीं भी बोझ या रुकावट सी नहीं' प्रतीत होती। सेठ रतनचंद, मुनिराज व उनके शिष्यगण की प्रश्नोत्तरी इसी प्रकार की है, जिसमें जैन धर्म की उच्चता उदात्तमन एवं भव्यता को प्रदर्शित किया गया है। इसी सर्ग में कहीं-कहीं जैन धर्म के पारिभाषिक शब्द आ जाने से जैन तत्वों से अनभिज्ञ पाठक को कठिनाई महसूस होती है। जैसे कर्मावरण, लोक स्वरूप, द्रव्य स्वरूप, विभाव लक्षण (कर्मों का पर्दा) आदि की चर्चा ऐसी ही है। 13वें सर्ग में कहीं-कहीं जैन धर्म के पारिभाषिक मूल तत्त्व जीव, अजीव, आस्रव, बन्ध, संवर, निर्झरा एवं मोक्ष ये सात तत्त्वों की भेदोपभेदों के साथ सूक्ष्म चर्चा बीच-बीच में आती है। 16वां सर्ग भी रतनचंद्र सेठ की जिज्ञासा-पूर्ति के लिए मुनि श्री तर्क-वितर्क एवं प्रमाण के साथ समाधान करते हैं, जिनमें जैन दार्शनिक सिद्धान्तों की चर्चा रही है, जो उद्देश्य की पुष्टि के लिए उपकारक है। सासादन गुणस्थानक, सम्यक्तसहित, स्वस्थान अप्रमत्तः सातिन्द्रेय, अप्रमत्त आदि दार्शनिक विचारधारा के वर्णन से लेखक जैन धर्म के मार्मिक पंडित है और निज धर्म उन्नति हेतु इस उपन्यास की रचना की है। अतः प्रकाशकीय निवेदन में स्पष्टत: कहा गया है कि यह उपन्यास कोई सामान्य कथा कहानी नहीं है, लेकिन एक सामाजिक व धार्मिक सैद्धांतिक ग्रन्थ ही कहानी के रूप में है, जो इसके पढ़ने से ही स्पष्ट मालूम हो सकेगा। इस प्रकार 'सुशीला' उपन्यास को उसके विन्यास की दृष्टि से सफल व महत्त्वपूर्ण उपन्यास स्वीकार किया जा सकता है। मुक्ति दूत : हिन्दी जैन साहित्य के प्रसिद्ध उपन्यासकार श्रीयुत वीरेन्द्र जैन का यह उपन्यास एक सशक्त व सफल उपन्यास कहा जायेगा, जिसके लिए न केवल जैन साहित्य बल्कि हिन्दी साहित्य जगत् भी गौरव ले सकता है। इस उपन्यास के अनुसार लेखक का आत्म कथानक शैली में लिखा गया उत्कृष्ट उपन्यास 'अनुत्तरयोगी-तीर्थंकर महावीर' तीन भागों में प्रकट हो चुका है। वह भी कथा, चरित्र-चित्रण, प्रकृति-निरूपण, भाषा-शैली एवं शिल्प-विधान प्रत्येक दृष्टिकोण से सर्वश्रेष्ठ उपन्यास कहा जायेगा। 'मुक्ति दूत' जैन धर्म के सिद्धान्तों को आधारभूमि बनाकर लिखा गया है। इसको लेखक महोदय ने 'रोमान्टिक उपन्यास' की संज्ञा से अभिहित किया है, जो इसकी कथावस्तु देखते हुए सर्वथा समुचित प्रतीत होता है। क्योंकि पवनकुमार और अंजना की पौराणिक-प्रेमविरह कथा को उन्होंने आधुनिक युग की मनोवैज्ञानिक विश्लेषण पद्धति व समुन्नत साहित्यिक शैली से सजाया-संवारा है।
SR No.022849
Book TitleAadhunik Hindi Jain Sahitya
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSaroj K Vora
PublisherBharatiya Kala Prakashan
Publication Year2000
Total Pages560
LanguageHindi
ClassificationSmruti_Granth
File Size39 MB
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