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________________ आधुनिक हिन्दी - जैन साहित्य सौन्दर्य के वर्णन में लेखक की भाषा अलंकारमय व प्राचीन कथा - साहित्य की भाषा-शैली से अत्यधिक प्रभावित हुई है। संक्षिप्त संवादों में भाषा की तीव्रता व हल्का-फुल्कापन दोनों देखा जाता है। अमुक स्थल पर भाषा में व्याकरण सम्बंधी दोष भी रहे हैं, लेकिन उपन्यास की आध्यात्मिकता व कथा की रोचकता के कारण उसके प्रति कम दृष्टिपात जाता है। (शान्ति के बदले शान्तता, अपने आत्मा आदि) छोटी-मोटी भूलें इतने बड़े उपन्यास में नगण्य समझी जायेंगी। जैन दर्शन के पारिभाषिक शब्दों से युक्त जहाँ भाषा होती है, वहाँ दुरुहता आ जाना स्वाभाविक है, यथा- संसादन- गुणस्थान, सम्यक्त सहित, स्वस्थपन, अप्रमत आदि। वैसे इनके द्वारा उपन्यासकार का तत्सम्बंधी ज्ञान अवश्य प्रकट होता है। जैन धर्म के तत्त्वों की चर्चा स्थल - स्थल पर आ जाने से प्रकृति के सुन्दर वर्णनों पर वे हावी हो जाते हैं । और प्राकृति की सुरम्यता की महत्ता कम हो जाती है। फिर भी पूर्णतया इस उपन्यास की भाषा शैली आधुनिक साहित्य की कही जायेगी। उद्देश्य : उपन्यास का यह तत्त्व प्रत्येक उपन्यासकार के विचार, व्यक्तित्व, समाज आदि से सम्बंधित रहता है। प्रत्येक उपन्यास का उद्देश्य भिन्न-भिन्न हो सकता है, लेकिन जैन उपन्यास साहित्य के लिए तो यह एक महत्वपूर्ण आदर्श या उद्देश्य रहता है कि उपन्यास के अन्य तत्त्व चाहे कैसे भी हों, उद्देश्य तो जैन धर्म की विचारधारा का किसी एक प्रमुख सिद्धान्त को साहित्यिक शैली में प्रस्तुत करने का रहता है। फिर प्रस्तुतीकरण का ढंग भिन्न हो सकता है। श्री वीरेन्द्र जैन ने 'मुक्ति दूत' उपन्यास में जैन धर्म की विचारधारा परोक्षत: व्यक्त की है, फिर भी उस कोमल, करुण, अहिंसात्मक वातावरण की खुश्बू चारों ओर फैल जाती है। यहाँ गोपालदास जी ने धार्मिक तत्त्वों की चर्चा सीधे रूप से स्वयं की है। जयदेव, सुशीला, एवं विशेषकर रतनचंद मुनि के पात्र द्वारा जहाँ भी मौका मिला धर्म के तत्त्वों की विशदता से चर्चा की है। विशेषकर सर्ग 7, 11 और 13 में तो पूर्ण रूप से आध्यात्मिक चर्चा ही चलती है। धार्मिक वातावरण की महत्ता सिद्ध करने के लिए सांसारिक कुटिलता को खल - दुष्ट पात्रों के द्वारा प्रदर्शित किया गया है। धार्मिक सिद्धान्तों का रोचक विवेचन कथा वस्तु के प्रवाह में करके अपने उद्देश्य को सिद्ध किया है। सातवें सर्ग में विषय वासना, कषायों, रागों से मनुष्य की दुर्गति किस प्रकार होती है और यदि इन्हें ही जीत लिया जाय तो जीव को नारकीय दुःखों से मुक्ति मिल जाती है। इसके लिए श्रेष्ठ उपाय है तृष्णा का त्याग करके दिगम्बरीय दीक्षा का अवलंबन ग्रहण 456
SR No.022849
Book TitleAadhunik Hindi Jain Sahitya
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSaroj K Vora
PublisherBharatiya Kala Prakashan
Publication Year2000
Total Pages560
LanguageHindi
ClassificationSmruti_Granth
File Size39 MB
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