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आधुनिक हिन्दी-जैन साहित्य
कहा जाता है। मनुष्य की जीवनधारा चिर प्रवाहशील, प्रगतिशील है। देश और काल के अनुसार उसमें सदैव परिवर्तन हुए हैं। उसके क्रिया-कलाप, पारस्परिक व्यवहार, मनोदशा, रागात्मक आकर्षण-विकर्षण के रूप-एवं क्षेत्र समय के प्रवाह में बदलते रहे हैं। उसके मन पर असंख्य संस्कार पड़ते गये हैं, मनोग्रंथियाँ बनती गई हैं और उसके व्यवहार में विविधता, विचित्रता आती गई है। उपन्यास आज के प्रगतिशील मानव को यथार्थ परिवेश में चित्रित करने का प्रयत्न करता है। युगीन संदर्भो में उपन्यास जैसी गद्य की सशक्त विधा से अनेकविध अपेक्षाएँ रखी जाती हैं और वह भी इस क्षेत्र में प्रगतिशील है। उपन्यास विधा की चर्चा से गद्य के शिल्प विधान का प्रारंभ करते समय उपन्यास के प्रमुख तत्त्वों को यदि संक्षेप में देख लिया जाय तो अनुचित नहीं होगा। कथा वस्तु :
__मनुष्य का जीवन गतिशील व कर्मशील होने से घटनाएं व्यापारों तथा क्रियाकलापों के बीच बहते हुए जीवन की विविध घटनाएं-आंतरिक व बाह्य-उपन्यास की कथा वस्तु के लिए अनेक रूप धारण कर लेती हैं। इसी विषय वस्तु की संघटना के निर्वाह में उपन्यास की कला निहित होती है। वैसे हमारा जीवन, जीवन की घटनाएँ, क्रम सब कुछ अप्रत्याशित या विशृंखलित होता है, क्रमबद्ध कुछ नहीं होता, अतः क्रमबद्ध घटनाओं से युक्त ही कथावस्तु हो, ऐसी आवश्यकता नहीं होनी चाहिए। फिर भी लेखक के लिए यह सुविधा रहती है कि अनिश्चित स्वच्छन्द जीवन-क्रम की घटनाओं जैसे कुछ विशिष्ट घटनाओं को चुनकर उन्हें सुनिश्चित ढंग से शृंखलाबद्ध कर पाठक को रोचक कथा वस्तु का आनंद आस्वाद कराये। हेनरी जोन्सन अपने विचारों को इस संदर्भ में व्यक्त करते हुए लिखतं हैं कि-अगर किसी लेखक की बुद्धि, कल्पना कुशल है, तो वह सूक्ष्मतम भावों से जीवन को व्यक्त कर देती है। वह वायु के स्पन्दन को जीवन प्रदान कर सकती है। लेकिन कल्पना के लिए कुछ आधार अवश्य चाहिए। __कथा वस्तु के शिल्प विधान की दृष्टि से उपन्यासों के दो भेद किए जाते हैं, एक तो वे जिनकी कथा असम्बद्ध या शिथिल होती है (novels of loose plot) और दूसरा वे जिनकी कथावस्तु सम्बद्ध या सुगठित (novels of oragenic plot) पहले में बहुत-सी घटनाओं का घटाटोप मात्र होता है, उनमें आपस में कोई सहज अथवा तर्क संगत प्रायः नहीं होता। वर्णनान्विति (unity 1. शिवनारायण श्रीवास्तव : 'हिन्दी उपन्यास', पृ. 439.