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________________ आधुनिक हिन्दी-जैन-काव्य का कला-सौष्ठव 423 भयन्द हेमन्त अलेप भूप की, सुदीर्ध हेमन्त निःशेष आयु थी। सुतहय हेमन्त रवीय पार्थ के, विनष्ट हेमन्त नलेव शत्रु थे। (45-48) लेकिन इस प्रकार के वर्णन संस्कृत साहित्य में पुनः पुनः पाये जाते हैं। और इसमें बहुत-सी जगह पर खोजने पर अलंकार-साम्य भी मिल जाता है। संस्कृत-के बहुत से आलंकारिक छन्दों से प्रभावित होकर अनूप जी ने कहीं-कहीं भाव ग्रहण किया है, तो कहीं-कहीं शाब्दिक प्रभाव ग्रहण किया है। परम्परागत अलंकारों के अतिरिक्त कवि ने इस महाकाव्य में अपनी भाव मयी कल्पना में अनेक नये सुमन सजाये हैं। कहीं-कहीं शब्दों की कल्पना में अर्थ और मृदुता का इतना सुष्ठु रूप दिया है कि सैद्धांतिक परिभाषाएं और कल्पनाएँ काव्यमय हो गई हैं। जैसे–त्रिशला के स्वप्नों की परिभाषा और स्वप्न का सार किस तरह सजीव हो उठता है, इसका कवि ने सुन्दर वर्णन किया है निशिथ के बालक, स्वप्न नाम के प्रबुद्ध हो के त्रिशला हृदयाब्ज में मिलिन्द से गुंजनशील हो गये। उगा नहीं चन्द्र , सगूढ़ प्रेम है, न चांदनी केवल प्रेम भावना। न रूक्ष है, उज्ज्वल प्रेमपात्र है, अतः हुआ स्नेह-प्रचार विश्व में। 'आंसू' के लिए कवि की सरस उक्ति देखिए"वियोग की है यह मौन भारती, दृगम्बु-धारा कहते जिसे सभी। असीम स्नेहाम्बुधि की प्रकाशिनी, समा सकी जो नस शब्द वक्ष में॥ कवि की यत्र-तत्र धार्मिक उक्तियों में कल्पना के साथ विद्वता व सामान्य जन-व्यवहार का ज्ञान भी परिलक्षित होता है जैसे पुरन्धित स्वगीर्य प्रतीत प्रीति है। 'मनुष्य का जीवन धूप-छांह सा। दिनेश की एक न तेजमान है, निसर्ग का प्रेम द्वितीय सूर्य है। "नितानत अज्ञात प्रवृत्ति प्रेम की। सुंदर आलकारिक भाषा-शैली के कारण ही दार्शनिक संवाद भी सुंदर बन पड़े हैं'कहो शुभे! ध्येय पदार्थ क्या?' 'महान कल्याणक जैन शास्त्र ही।' 'कहो कहो भूपर गेय वस्तु क्या?' "जिनेन्द्र धारा परिगीत तत्व ही।' 1. वर्धमान, पृ. 105. 2. वही, पृ. 631. 3. वही, पृ. 424. 4. वही, पृ. 312.
SR No.022849
Book TitleAadhunik Hindi Jain Sahitya
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSaroj K Vora
PublisherBharatiya Kala Prakashan
Publication Year2000
Total Pages560
LanguageHindi
ClassificationSmruti_Granth
File Size39 MB
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