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________________ आधुनिक हिन्दी-जैन-गद्य साहित्य : विधाएँ और विषय-वस्तु 387 सकते हैं। नम्रता व वास्तविकता जो आत्मकथा के लिए परमावश्यक है, उन दोनों का इसमें पूर्णतया निर्वाह किया गया है। प्रारंभ में ही वर्णी जी बताते हैं-न तो मैं शोधक हूँ, और न साहित्यकार हूँ। मैं तो भगवान महावीर के महान सिद्धान्तों का अनुयायी मात्र हूँ, और स्वतंत्र विचारक हूँ। मुझे उनके मार्ग का अनुसरण करने में जो आनंदानुभव आता है, वह बचनातीत है।" वर्णी जी सचमुच सत्य के अन्वेषण एवं उपदेशक हैं। अतएव, यात्रा के दौरान कठिनाइयों के साथ स्वयं की मूर्खता को स्पष्टतः बताते हैं। वर्णी जी सारे जैन समाज के लिए आदरणीय एवं श्रद्धाभाजन हैं। आबाल-वृद्ध सभी को उनके जीवन से कुछ न कुछ सीखने को मिलता है। अपने जीवन की मार्मिक घटनाओं को वे व्याख्यानों में रसात्मकता से वर्णन करते थे। आत्मकथा लिखकर वे प्रकाशित करना नहीं चाहते थे, आत्म प्रशस्ति का डर जो लग रहा था, लेकिन बहुत दबाव डालने पर ही तैयार हुए। प्रारंभ में जैन धर्मी न होकर वैष्णव धर्मी थे, लेकिन बचपन से जैन धर्म के प्रति उत्कट अनुराग था। क्रमशः यह अनुराग बढ़ने से जैन धर्म के तत्त्वों के गहन अभ्यास के साथ व्रत, स्वाध्याय तथा नियमों का चुस्तता से पालन करने लगे, देव-मंदिरों का दर्शन, पूजन उनको आनंद-शान्ति देता था। आत्मकथाकार ने केवल भ्रमण एवं यात्राओं का नीरस वर्णन ही नहीं किया है, अपितु रोचक शैली में बीच-बीच में प्रकृति का सुंदर वर्णन भी किया है। मैनागिरि की यात्रा करते हुए पर्वत के निकटस्थ सरोवर का वर्णन करते हुए कहते हैं-स्नानादि से निवृत्त होकर श्री जिन मंदिर के लिए उद्यमी हुआ। प्रथम तो सरोवर के दर्शन हुए जो अत्यन्त रम्य था। चारों ओर सारस आदि पक्षीगण शब्द कर रहे थे। चकवा आदि अनेक प्रकार के पक्षीगण शब्द कर रहे थे। कमल के फूलों से वह ऐसा सुशोभित था, मानों गुलाब का बाग ही हो। जैन धर्म का गहराई में ज्ञान प्राप्त करने के लिए भिन्न-भिन्न विद्वानों के पास जाते रहते थे। इन यात्राओं के वर्णन में इतनी सजीवता, जीवटता एवं मौलिकता का रंग है कि पाठक उस रंग में रंगे बिना नहीं रह सकता, आसानी से तादात्म्य स्थापित कर लेता है। इस आत्मकथा की एक और विशेषता है कि इसमें वर्णी जी की मार्मिक जीवन कथा के साथ जैन समाज के सामाजिक, ऐतिहासिक व धार्मिक इतिहास के साथ शिक्षा विकास का क्रम पाया जाता है, क्योंकि वर्णी जी एक व्यक्ति न होकर संस्था है। उनके साथ अनेक संस्थाएँ जुड़ी है, क्योंकि खुद को जैन 1. वर्णी जी : मेरी जीवन गाथा-पृ. 29.
SR No.022849
Book TitleAadhunik Hindi Jain Sahitya
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSaroj K Vora
PublisherBharatiya Kala Prakashan
Publication Year2000
Total Pages560
LanguageHindi
ClassificationSmruti_Granth
File Size39 MB
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