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जाधुनिक हिन्दी-जैन साहित्य
सुखदा- लोकोपवाद रोकने में विधि भी अक्षम है।
विजय में विजेता को अन्धा कर देने की शक्ति है। + + + पाप विजय के पीछे-पीछे ही घूमता रहता है। संवाद में तीव्रता सर्वत्र दीखती है।
'अंजना पवनंजय' नाटक जिस वाणी प्रचारक कार्यालय की ओर से प्रकाशित किया गया है, जिसकी कथावस्तु अंजना से सम्बंधित प्राचीन व प्रसिद्ध है। इस नाटक में बेहोश हो जाने पर प्रायः सभी पात्रों का 'मुझे संभालो, मैं अचेत होता जा रहा हूँ।' उक्ति में संस्कृत नाटकों का प्रभाव लक्षित होता है। इसी कथा वस्तु को लेकर पद्मराज गंगवाल जैन ने भी 'सती अंजना' नाटक लिखा है। यह नाटक भी पूर्ण अभिनेय है। बीच-बीच में कविता रखी गई है। शेर-शायरी भी प्रत्येक पात्र के संवाद में रहती है, जो बहुत-सी जगह अस्वाभाविक-सी प्रतीत होती है, विशेषकर प्रौढ़ पात्र के मुँह से। यह नाटक राजस्थान में जगह-जगह पर प्रसिद्ध कलाकारों द्वारा अभिनीत किया गया है। इसलिए नाटककार ने लम्बी-लम्बी कविताएं फिल्मी गीतों की तर्ज पर रखी हैं, जिससे आसानी से गाया जा सके। कहीं गजल के ढंग पर छोटी कविता या छन्द भी रखे हैं, जैसे-बांके नामक नागरिक गाता है
लुभा ले मन को कागज पर उसे तस्वीर कहते हैं, न पड़ जाय कोई जिसको, उसे तकदीर कहते हैं। समय पर काम जो दे दे उसे तदबीर कहते हैं, बिना मेहनत ही मिल जाय, उसे तकदीर कहते हैं। अंजना भी पति-विरह में शेर-शायरी में मनोव्यथा व्यक्त करती हैअंजना-दिन बीते, रातें बीती, ऋतुएं बदली, महीने, वर्ष और युग बदले,
किन्तु हाय। मुझ अभागिन का भाग्य नहीं बदला।' शेर- तड़पती हूँ कि ज्यों, मछली पिन पानी तड़फती है।
दरश पाने को प्रियतम के, अभागिन यह तरसती है। हुई है जिन्दगी दूभर, नहीं कुछ भी सुहाता है।
विरह की वेदना से अब, कलेजा मुँह को आता है। संवाद इसके भी छोटे-छोटे और शक्तिशाली हैं। यवन और वरुण के निम्नोक्त संवाद में लघुता एवं तीव्रता दृष्टव्य है :1. अंजना-सुदर्शन कृत-पृ. 5. 2. अंजना-सुदर्शन कृत-पृ. 62. 3. अंजना-सती अंजना-पद्मराज जैन, पृ. 8. 4. अंजना-सती अंजना-पद्मराज जैन, पृ० 36 अंक दूसरा, दृश्य पहला।