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________________ आधुनिक हिन्दी-जैन-गद्य साहित्य : विधाएँ और विषय-वस्तु 317 मुनिराज के संसर्ग में आता है तो लोहे-सा गौतम स्वर्ण-सा बन जाता है। उसके जीवन की दशा ही परिवर्तित हो जाती है। “भोजन को जीवन का हेतु न समझ कर जीवन का साधन मात्र समझना चाहिए, क्योंकि-संसार में अकेले आये हैं। कोई किसी का राजा नहीं, साथी नहीं। सब अपना-अपना सुख-दु:ख आप झेलते हैं। मैं तुम्हें जीवनदान दूंगा। वह जीवन जो वास्तविक जीवन है। अजर अमरता पर जिसका आधिपत्य है। भोजन के हेतु ही जीवन नहीं है, गौतम, जीवन के हेतु ही भोजन करना सत्यता है।" दूसरी कहानी अनुरुद्ध में महात्मा अनुरुद्ध एवं वेश्या मदनपताका के चरित्रों का चित्रण अत्यन्त गहराई से किया गया है। विराग की आड़ में बैठी वासना एवं दम्भ का पर्दाफाश इसमें किया गया है। 'कलाकार' की कथा वस्तु 16वीं 17वीं शताब्दी की है। पद्मनगर के राजा का प्रियपात्र ‘हाल' का पुत्र गुलाल बहुरूपिये का स्वांग भरते-भरते निपुण हो गया और सच्चा कलाकार 'स्वांग' में निजता खो देता है। एक बार युवराज की आज्ञा से शेर का स्वांग भरते समय युवराज के उकसाने पर उन्हें पंजों के नाखनू से घायल कर मार डालता है। युवराज की मृत्यु के शोक को कम करने के लिए महाराज की आज्ञा पर दिगम्बर साधु का वेश धारण करना पड़ा, लेकिन यह उसके कलाकार जीवन का अंतिम वेश था। सच्चे हृदय से यह मुनिराज बन गया। "वह निमित्त को दोष नहीं देता, क्योंकि वह तो नादानी है। भाग्य और निमित्त दो बड़ी शक्तियाँ हैं, जिनके सामने बेचारा गरीब प्राणी खिलौना मात्र रह जाता है।" अन्त में साधु वेश में उपदेश देता हुआ ब्रह्मगुलाल उसी स्वांग की असत्यता को भूलकर सच्चे साधुपन में खो गया और वेश का महत्व सिद्ध कर दिया। 'मां ने, बाप ने, स्त्री ने, सब ने जी-तोड़ कोशिश की, पर ब्रह्मगुलाल ने साधुता का त्याग करना स्वीकार न किया। वह नगर से दूर, वन में आत्म-आराधना में लीन हो गया। ___ 'आत्म-बोध' की कथा वस्तु प्राचीन है। 'सुकुमाल' उपन्यास में जिसकी चर्चा आगे आ चुकी है, उसी के एक अंश रूप कथावस्तु है। सूर्यमित्र नामक राजपुरोहित रहस्य एवं भविष्य जानने की इच्छा से अल्पकाल के लिए दिगम्बर साधु का वेश धारण करके अंत में सचमुच ही उसी रंग में रंग जाते हैं। पवित्र वेश एवं आचार-विचार का प्रभाव उन पर पड़ता है। आत्म बोध प्राप्त होने पर फिर उस विद्या पाने का मोह नष्ट हो जाता है। बाद में वे केवल महान तपस्वी ही नहीं, आचार्य भी बने एवं अपने गुरु सुधर्माचार्य से पश्चाताप के स्वर में कहते हैं-नहीं प्रभो! अब मुझे विद्या की जरूरत नहीं, अब मुझे उससे कहीं
SR No.022849
Book TitleAadhunik Hindi Jain Sahitya
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSaroj K Vora
PublisherBharatiya Kala Prakashan
Publication Year2000
Total Pages560
LanguageHindi
ClassificationSmruti_Granth
File Size39 MB
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