________________
288
आधुनिक हिन्दी-जैन साहित्य
आनंदमय मंगलकारी शिवलोक में ले चलती है। प्रकृति की अंगुली पकड़कर ही पुरुष शिवधाम में शान्ति की चरम आनन्दानुभूति कर सकता हैं।
जैन धर्म मान्यतानुसार मुनष्य को मान, राग, द्वेष और अहंकार का त्याग कर अपनत्व की सीमा से दूर जाकर सबको समानता व समभाव से देखने का दृष्टिकोण अपनाना चाहिए। 'मुक्तिदूत' के कथाकार श्री वीरेन्द्र जी ने रोचक कथावस्तु के साथ अंजना के विचारों से यही व्यक्त किया है, लेकिन किंचित मात्र भी ख्याल नहीं जाता कि लेखक उपदेश देते हैं। महान विचारधारा का कैसा रसप्रद समन्वय कथा प्रवाह में कुशलता से लेखक ने कर दिया है! अंजना के मुख से उसकी चारित्रिक उदात्ता के अनुरूप ही यह विचार धारा स्फुट होती है कि-अपने को बहुत मत मानो, क्योंकि वही सारे रोगों की जड़ है। मानना ही तो मान है। मान सीमा है। आत्मा तो असीम है और सर्व व्यापी है। निखिल लोकालोक उसमें समाया है। वस्तु मात्र तुममें है, तुम्हारे ज्ञान में है। बाहर से कुछ पाना नहीं है। बाहर से पाने और अपनाने की कोशिश लोभ है, वहाँ जो अपना है, उसी को खो देना है। उसी को पर बना देना है, मान ने हमें छोटा कर दिया है. जानने-देखने की शक्तियों को मंद कर दिया है। हम अपने में ही घिरे रहते हैं। इसी से चोट लगती है, दुःख होता है। इसी से राग है, द्वेष है, रगड़ है। सबको अपने में पाओ, भीतर के अनुभव से पाओ। बाहर से पाने की कोशिश माया है, झूठ है, वासना हैं। उसी को प्रभु ने मिथ्यात्त्व कहा हैं। स्वर्ग, नरक, मोक्ष सब तुम्हीं में है, उनका होना तुम्हारे ज्ञान पर कायम है। कहा न कि तुम्हारा जीव सत्ता मात्र का प्रमाण है, वह सिमट कर क्षुद्र हो गया है, तुम्हारे 'मैं' के कारण। 'मैं' को मिटाकर 'सब' बन जाओ। जानने-देखने की तुम्हारी सबसे बड़ी शक्ति का परिचय इसमें है।" कितनी उदात्त विचारधारा के साथ स्त्री-सहज कोमलता व नम्रता दीप्त हो उठती है, अंजना की अनन्त श्रद्धा भक्तियुक्त गंभीर वाणी में। सचमुच ही 'मुक्तिदूत' उपन्यास औपन्यासिक कला-कौशल की कसौटी पर पूर्णतः खरा उतरता ही है, लेकिन जैन-दर्शन की विचारधारा की दृष्टि से भी इसमें मानवता, प्रेम, अहिंसा, करुणा व सत्कर्मों के आदर्शों को वाणी प्रदान करने में सफल रहा है। लेखक ने इसमें मानवता का आदर्श त्याग, प्रेम, संयम और अहिंसा के समन्वय में बताया है। भाव, भाषा, शैली, उद्देश्य सभी दृष्टिकोणों से वीरेन्द्र जी का यह आधुनिक युगीन उपन्यास उत्कृष्ट एवं समर्थ है। चतुर बहू:
1916 ई. में दीपचन्द जी ने इस छोटे से सामाजिक शिक्षा प्रद उपन्यास