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________________ आधुनिक हिन्दी जैन काव्य : विवेचन 249 उपर्युक्त कविताओं के दो-चार उदाहरणों से भी देख पाते हैं कि कवि की भाषा-शैली कितनी सरल है। इस संदर्भ में कवि स्वयं स्पष्टता करते हैं कि-"कविताओं की भाषा मैंने सरल हिन्दी रखी है। कविता अपनी भाषा की दुरूहता से जन-मानस से अलग छिटक जाये, यह मुझे पंसद नहीं। आज की नयी कविता में जो सबसे अधिक अभाव प्रतीत होता है, वह यही कि वह भाव भाषा-शैली दोनों ही दृष्टियों से जन-साधारण से बहुत-दूर जा रही है। परिणामतः जनमानस कवि के पांडित्य से अवश्य अभिभूत है, लेकिन काव्य के साथ उनका बिलकुल तादात्म्य नहीं।" दूसरे में कविता नयी और पुरानी के इस द्वन्द्व से जनमानस में साहित्यकार पैदा होता है। जगत के प्रति एक अनास्था का भाव भी भावना के कविता-प्रतिष्ठा की कोई सशक्त विद्या जनता के समक्ष आये। लय-गीत, तुकान्त, अतुकान्त आदि को समान रूप से मैंने सम्मान दिया है।' 'अन्धा चांद' की कविताओं के विषय में राजस्थान के प्रसिद्ध कवि कन्हैयालाल शेठिया लिखते हैं कि-यह सही है कि अंधा चांद की कविताओं में परंपरागत काव्योक्ति शिल्प का विघटन हुआ है, पर अगर शिल्प अपने मूल अर्थ में सहज का ही पर्यायवाची है तो यह विघटन काव्य के लिए स्वस्थता का ही चिह्न है, अस्वस्थता का नहीं। चेतना की परिधि का यह इच्छित विस्तार इन नये मूल्यों को स्थापित कर सकेगा, जिनके साथ समस्त मानवता का भविष्य जुड़ा हुआ है। मेरी मान्यता है कि मनोवैज्ञानिक और दार्शनिक आधारों पर स्थित नयी कविता को रस-बोध के उस चरम बिंदु तक पहुँचा देगी; जहाँ संवेदना स्वयं वेदना बन जायेगी। मुनि रूपचन्द जी की लेखनी आज भी गद्य की विधा के समान काव्य पर भी समान रूप से प्रवृत्तिमय है। उनके काव्यों में स्पष्टतः प्रत्यक्ष रूप से-जैन दर्शन का कोई सिद्धान्त न रहने पर भी उनकी विचारधारा में मानवतावाद, करुणा, प्रेम का उच्च रूप झलकता है, चाहे उनकी प्रत्यक्ष अभिव्यक्ति न की गई हो। डॉ. हुकुमचन्द भारिल्ल ने सरल भाषा शैली में अरिहन्त, सिद्ध व सीमंधर के पूजन पदों की रचना 'अर्चना' में की है। शुद्ध खड़ी बोली में यह स्तुति वंदना लिखी हुई है। कवि प्रभु की विविध प्रकार से पूजा करते हुए कहते हैं आशा की प्यास बुझाने को, अब तक मृगतृष्णा में भटका। जल समझा विषय-विष भोगों को, उनकी ममता में था अटका।। लख सौम्य दृष्टि तेरी प्रभुवर, समता-रस पीने आया हूँ। इस जल ने प्यास बुझाई ना, इसको लौटाने आया हूँ। 1. मुनि रूपचन्द जी-'अन्धा चांद'-प्राक्कथन, पृ० 3. 2. द्रष्टव्य-मुनि रूपचन्द जी-'अन्धाचांद'-भूमिका, पृ० 1.
SR No.022849
Book TitleAadhunik Hindi Jain Sahitya
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSaroj K Vora
PublisherBharatiya Kala Prakashan
Publication Year2000
Total Pages560
LanguageHindi
ClassificationSmruti_Granth
File Size39 MB
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