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आधुनिक हिन्दी-जैन साहित्य
कथावस्तु :
राजा वसु, ब्राह्मण पुत्र नारद एवं मंत्री पुत्र पर्वत बाल्य काल में तीनों एक ही आश्रम में पढ़ते थे तब ‘अज' शब्द का अर्थ गुरु ने 'त्रिवर्षीय शला' (जौ) बताया था। बड़े होने पर वसु राजा बनता है एवं ब्राह्मण पुत्र नारद विद्या अर्जन हेतु देश का भ्रमण कर ज्ञानोपार्जन कर वापस आता है और पर्वत अब अपने पिता का स्थान ग्रहण कर चुका है, लेकिन वह सच्चा ज्ञानी न होकर ज्ञान का दंभ मात्र भरने वाला है। एक दिन 'अज' शब्द को लेकर नारद एवं पर्वत अड़ गए पर्वत 'यज्ञ में बलि का बकरा' बताकर उसी पर अड़ा रहा, जब कि सच्चा अर्थ नारद का था। बाद में दोनों में वाद-विवाद तीव्रता पर पहुँचने से राजा वसु के पास न्याय कराने के लिए जाते हैं। पर्वत की माता ने राजकुमार वसु को बचपन में एक बार गुरु के क्रोध से बचाने पर कुछ माँगने का वरदान भविष्य के लिए रखा था और उसे मालूम था कि मेरा पुत्र हारनेवाला है और नारद का अर्थ सत्य होने से वसु उसको ही सच ठहरायेंगे। अतः वह राजा के पास पहुँचकर पुत्र के पक्ष में न्याय देने का वचन माँग लेती है, जो सरासर गलत था। लेकिन वचनबद्ध वसु को असत्य बोलकर न्याय करना पड़ा। फलस्वरूप असत्य के समर्थन से वह सिंहासन समेत पाताल चला गया। मूढ़ पर्वत कलंक का दोषी रहा। वसु राजा को भी यज्ञ में बकरे की बलि को हिंसामय जानते हुए भी गुरु-पत्नी को दिए वरदान को निभाने के लिए झूठा न्याय देना पड़ा। पर्वत को भी नगरवासियों ने हिंसावादी समझकर नगर बाहर निकालने की सजा दी। इस प्रकार यह एक उपदेशात्मक लघु खण्डकाव्य है। भाषा इसकी सरल हैं। भाव अच्छे हैं। पात्रों के चरित्र-चित्रण एवं वर्णनों की गुंजाइश अत्यन्त कम रही है। कपूरचन्द्र जैन इस कृति के संदर्भ में लिखते हैं-"स्व० भगवतजी की यह रचना यद्यपि भाषा और साहित्य की दृष्टि से उनकी प्रारंभिक और शैशव अवस्था की अनुमान की जाती है, किन्तु भावों की दृष्टि से वह आज भी उतनी ही गई, उपयोगी और प्रेरणादायक है, जितनी कभी अतीत काल में रही होगी। 'सत्य' और 'अहिंसा' की अवहेलना के दुष्परिणाम को वह आज भी सूर्य की भाँति प्रकाशित कर रही हैं।" पद्य की शैली साधारण है, लेकिन अहिंसा एवं सत्य के महत्व का संदेश छोटे-से कथानक के भीतर छिपा हुआ है, वह उल्लेखनीय है। सामान्य जैन समाज की समझ के लिए सरल शैली अपनाई गई हो ऐसा प्रतीत होता है। कहीं-कहीं सूक्ति के रूप में अच्छे कथन मिलते हैं-यथा-सच है विनाश के समय सुधि, विपरित बुद्धि हो जाती।' इस प्रकार यह लघु खण्ड काव्य साधारण होते हुए भी अपना महत्व रखता है। 1. सत्य अहिंसा का खून-प्राक्कथन, पृ० 7.