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________________ 212 आधुनिक हिन्दी-जैन साहित्य इन्द्रजाल सब स्नेह समझना, स्वारथ लागि गिनत जन अपना। क्षणभंगुर यह देह ही सपना, फोकट तो फिर काहि कलपना॥ योग-वियोग हि संध्या रंगा, अटल नियम चिर काल अभंगा। नश्वर यह जग दिखो तपासी, प्रभु नाम शाश्वत अविनासी॥ यह देह नश्वर है। मनुष्य इसका गुमान व्यर्थ में करता है और देह के बाह्य सौंदर्य से मुग्ध होकर विविध रूप से सजाता है, लेकिन अन्ततः वह है केवल मांस-मज्जा युक्त विनाशी शरीर ही क्षणिक सुख हित यह संसारा, अशुभ निश्चित होत अपारा। आवत योग्य न मूरख, शाश्वत अशाश्वत की पारस॥ स्त्री अधरोष्ठ समुझ परवाला, मांस लेख न दिखे मतवाला॥ अरु स्तन मांस पिण्ड को देखे, कंचन कलश मूर्ख लेते। रुधिर मूत्र-मल चर्म मढ़े तन, समुझत नाहिं अशुचि भाजन। धन मन यौवन धर्म विवारक, नींदनीय विषय ही दुःख दायक। मूलदास जी ने साधु धर्म व उसकी कठिनाई का विस्तृत वर्णन महावीर-दीक्षा व जामालि-दीक्षा प्रसंज पर किया है। उसी प्रकार रानी यशोदा को राजकुल की वृद्ध-स्त्रियों के द्वारा सती धर्म का भी ज्ञान विशद् रूप से दिलवाया है, जिनका वर्णन यहाँ अपेक्षित नहीं है। मनुष्य को सदैव शुभ कर्मों में प्रवृत्त रहना चाहिए, वरना पीछे से पछताने का समय आता है जैसे पक्षि पास पकराते, करत प्रयत्न मुक्ति नहि पाते। तैसे जीव अहुम बन्धन कर, फलत अरु पछितात निरंतर॥ दार्शनिक सिद्धान्त के अंतर्गत जीव और लोक को शाश्वत और अशाश्वत दोनों रूप में स्वीकारा जा सकता है, ऐसा भगवान महावीर ने दृष्टान्त के साथ सिद्ध किया। क्योंकि भद्र प्रश्न यह कठिन महि है, अशाश्वत शाश्वत गत कहिहै। वर्तमान भूत भविष्य लोका, रूप सामान्य रहते विलोका॥ ताते शाश्वत है समुझा, फिर अशाश्वत जान। अवसर्पिणी पर्याय से, परिवर्तन ही प्रमाण॥ 7-147 ऐसे बाल्यादि अवस्था से, जीव ही शाश्वत अबसि भासे। नर माटक तिर्यञ्च संभव ते, अशाश्वता जानहु अनुभव ते॥ 149॥' जैन धर्म के महामंत्र का माहात्म्य कवि बताते हैं1. द्रष्टव्य-कवि मूलदास कृत-'वीरायण' सप्तम खण्ड, पृ० 665.
SR No.022849
Book TitleAadhunik Hindi Jain Sahitya
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSaroj K Vora
PublisherBharatiya Kala Prakashan
Publication Year2000
Total Pages560
LanguageHindi
ClassificationSmruti_Granth
File Size39 MB
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