________________
आधुनिक हिन्दी जैन काव्य : विवेचन
उन्मादक प्रेमालाप के योग्य नहीं है, महावीर उनके दूसरे पुत्र हैं। नवविवाहित दाम्पत्य जीवन में उद्दीप्त, उल्लसित प्रेमानुभूतियां सहज हैं, लेकिन दूसरे-तीसरे बालक के जन्म ले चुकने के उपरान्त दम्पत्ति की भावनाओं में गांभीर्य एवं एक स्थैर्य आ जाता है। वह तीव्रता और आकुलता नहीं रहती जो वैवाहिक जीवन के प्रारम्भ में रहती है। प्रथम बालक के जन्म पूर्व प्रेम - चेष्टाएं सहज सुन्दर व स्वाभाविक प्रतीत हो सकती है, लेकिन विशेष उम्र व स्थान - प्राप्ति के अनन्तर संयोग श्रृंगार का वर्णन भद्दा - सा लग सकता है। पाठक त्रिशला को महारानी के रूप में नहीं वरन् तीर्थंकर की पूज्यपाद माता के स्वरूप में ही सोचते आये हैं। एक से अधिक बार देह - सौन्दर्य का उन्मुक्त विस्तृत वर्णन महाकाव्य को अधिक रमणीय बनाने की अपेक्षा पाठक के हृदय में विरक्ति का भाव भर देता हो तो भी आश्चर्य नहीं ।
173
इसके समर्थन में यह भी कहा जा सकता है कि महाकाव्य की वर्णन परम्परा के अनुकूल वर्णन को त्यागने के लिए कवि बाध्य नहीं है इसके उपरान्त कवि को जो प्रसंग अधिक मार्मिक एवं रमणीय प्रतीत होंगे, उनको चित्रित किये बिना छोड़ दे तो महाकाव्य का प्रभाव नष्ट हो जायेगा । यदि कवि ऐसे रसपूर्ण प्रसंगों को केवल स्पर्श करके आगे चल दे तो काव्य में रसात्मकता संभव नहीं होती तथा आलोचक की विवेचना होती है कि कवि के पास सूक्ष्म पारखी दृष्टि और हृदय नहीं है। ऐसे स्थलों पर ही कवि की कुशलता का परिचय प्राप्त हो सकता है।
त्रिशला के नख - शिख वर्णन के सन्दर्भ में कहा जा सकता है कि कवि अनूप जी ने महाराज सिद्धार्थ की रूपवती, मनोकाम्य पत्नी के रूप में उनका वर्णन किया है, न कि तीर्थंकर की माता त्रिशला देवी के रूप में। कवि के पास सौन्दर्य व प्रेम के वर्णन के लिए फलक बहुत सीमित है, अतः गहरे रंगों से रंग कर उसे उभारने का प्रयास किया है। श्रृंगार रस की सहज उत्पत्ति और विकास के उत्पादन स्वरूप नायक-नायिका के युवकोचित विभ्रम-विलास का, रागपूर्ण व्यवहार का जो चित्रपट कवि को प्राप्त होना चाहिए, वह यहां नहीं है। इसका पहले उल्लेख हो चुका है। अतः शृंगार चित्रण का संतुलन सिद्धार्थ- त्रिशला के रसयुक्त प्रेमालाप द्वारा किया है। दूसरे सर्ग में शृंगार का वर्णन जहां मांसल स्नेह के धरातल पर किया गया है, वहां कवि ने केवल उन्हें राज - दम्पत्ति के, रूप में ही स्वीकार किया है। कवि को सीमित क्षेत्र में काव्य-परम्परा निभाने के लिए ऐसे वर्णनों का सहारा लेना पड़ा। इससे महाकाव्य का पूर्वार्द्ध रमणीय बन गया है। पांचवें सर्ग में तो यही आसक्ति, प्रेम की गरिमा व गहनता में