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साहित्य का शोध पूर्ण अध्ययन एवं अनुशीलन अपेक्षित था। केवल हिन्दी भाषा में ही नहीं, वरन् गुजराती, राजस्थानी तथा दक्षिण भारत की विविध भाषाओं में जैन-साहित्य का सृजन विशाल परिमाण में हुआ है, लेकिन अनुसंधायिका का प्रयोजन हिन्दी भाषा में लिपिबद्ध आधुनिक जैन साहित्य के सम्बन्ध में खोजबीन करने का रहा है। आदिकाल व मध्यकाल के हिन्दी जैन साहित्य को विवेचित होने का अवसर अवश्य प्राप्त हुआ है, किन्तु आधुनिक काल का हिन्दी जैन साहित्य प्रायः उपेक्षित रहा है। अतः प्रस्तुत विषय पर कार्य करने की आवश्यकता अनुभव कर गुरुवर डा. दयाशंकर शुक्ल ने शोधार्थिनी को प्रेरणा प्रदान की। हिन्दी साहित्य के इतिहास लेखकों ने हिन्दी-जैन साहित्य की प्रायः उपेक्षा की है।
अतः इस उपेक्षित किन्तु प्रभूत मात्रा में उपलब्ध साहित्य का अनुशीलन प्रत्येक दृष्टि से महत्त्वपूर्ण जान पड़ा।
समग्र जैन साहित्य धार्मिक होने पर भी साम्प्रदायिक असहिष्णुता से प्रायः रंजित है। 'जैन साहित्य में आत्मशोधक तत्त्वों की प्रचुरता है। यह वैयक्तिक और सामाजिक दोनों ही प्रकार के जीवन को उन्नत बनाने की पूर्ण क्षमता रखता है। अत: जैन साहित्य को केवल साम्प्रदायिक कहना नितान्त भ्रम है।' किसी भी धर्म-विशेष के सिद्धान्तों को कलात्मक साहित्यिक रूप देकर जनता की सात्विक वृत्ति एवं सद्गुणों को जगाने वाले साहित्य में साम्प्रदायिकता कभी नहीं आ सकती। हिन्दी साहित्य का पूर्व मध्यकालीन साहित्य तो पूर्णतः धार्मिक साहित्य है। यदि इनमें किसी को साम्प्रदायिकता की बू नहीं आती तो जैनसाहित्य से ही ऐसी अपेक्षा क्यों? इसमें उन्मुक्त श्रृंगार का वर्णन पर्याप्त मात्रा में प्राप्त नहीं होता है। विवेकशील, रागात्मक व सात्विक वृत्तियों को अनुरंजित करने वाले शांत रस का प्राधान्य ही यहां मिलता है और क्या इन्हीं कारण से तो इस महत्त्वपूर्ण साहित्य को उपेक्षित नहीं हो जाना पड़ा है!
__ यहां आधुनिक हिन्दी-जैन-साहित्य-विद्वानों के समक्ष निवेदन प्रस्तुत करने का विनम्र प्रयास किया गया है। इस सम्बन्ध में निवेदित है कि इसमें किसी प्रान्त-विशेष के जैन साहित्यकारों की रचनाओं का अनुशीलन नहीं किया गया वरन् जैन धर्म के प्रमुख लोकोपयोगी तत्त्वों व विचारों को आधार शिला बनाकर हिन्दी में लिखे गये संपूर्ण आधुनिक जैन साहित्य को (सन् 1950 से 1970 ई. तक) अध्ययन का विषय बनाया है। इसके लिए अनुसंधायिका अपने विद्वान गुरु की सदैव आभारी रहेगी, जिन्होंने हिन्दी-जैन साहित्य की अपूर्ण 1. नेमिचन्द शास्त्री-'हिन्दी जैन साहित्य परिशीलन, भाग-1, दो शब्द, पृ. 5.