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आधुनिक हिन्दी-जैन साहित्य
गहरे पानी पैठ :
अयोध्याप्रसाद गोयलीय का यह एक विशिष्ट प्रकार का कथा ग्रन्थ है। इसमें उन्होंने छोटी-छोटी 118 कहानियां, किवदंतिया, चुटकुले, स्मरण एवं आख्यान लिखे हैं और तीन भागों में विभक्त किया है- "बड़े जनों के आशीर्वाद से (55 कथाएं) इतिहास और जो पढ़ा (47) हिये की आँखों से जो देखा (16)। इन कथाओं में लेखक की कहानी-कला का परिचय अनेक स्थलों पर मिलता है। इसमें प्राचीन कथा वस्तु पर से आधारित सभी कहानियां नहीं हैं, लेकिन जीवन के अनुभवों, ज्ञान को लेकर मार्मिक मनोरंजन प्रदान करनेवाली कथाएं भी है। इसलिए ये कथाएं जीवन के उच्च-व्यापारों से सम्बंध रखती है। इन कथाओं की भाषा भी शुद्ध, टकशाली एवं मुहावरेदार है। लेखक को इसकी रचना में अपूर्व सफलता प्राप्त हुई है। __इन सबके अतिरिक्त श्री बलभद्र जी न्यायतीर्थ, 'ठाकुर' के उपनाम से 'जैन-संदेश' में अच्छी कहानियां लिखते थे। 'इन कथाओं में कथा-साहित्य के तत्वों के साथ जीवन की उदात्त भावनाओं का सुन्दर चित्रण हुआ है। शैली प्रवाहपूर्ण है, भाषा परिमार्जित और सुसंस्कृत है। किन्तु आरंभिक प्रयास होने के कारण कथानक, संवाद, चरित्र-चित्रण में कला के विकास की कुछ कमी है।"
आधुनिक हिन्दी जैन कथा साहित्य में चरित्रों की जीवनी परक कथा लिखने की परम्परा पूर्ववत् दिखाई पड़ती है। तीर्थन्कर ऋषभदेव, नेमिनाथ, पार्श्वनाथ और महावीर की जीवनी को कथाबद्ध करने का पूरा उत्साह जैन साहित्य में दृष्टिगत होता है। सभी में सामान्य विशेषताएं एक-सी रहती है। तीर्थंकरों के जन्म पूर्व माता को स्वप्न, गर्भ की स्थिति, जन्म-महोत्सव तीर्थंकर के जन्म के कारण समृद्धि वैभव बढ़ना, यौवन, त्याग-वैराग्य के अनन्तर प्रवज्या। गृह त्याग के बाद कठिन तपश्चर्या एवं कष्टों को सहन करते हुए 'केवल ज्ञान' की प्राप्ति और बाद में धर्मोपदेश का वर्णन सभी चरित्र कथाओं में पाया जाता है। इन सबके उपरान्त तीर्थंकरों के पूर्व भवों की कथाएं भी साथ-साथ चलती है। इस प्रकार के चरित्र-ग्रन्थों में ऐतिहासिकता तथा कल्पना का समिश्रण किया गया होता है। ऐसे कथा-साहित्य को चरित्रात्मक-कथा साहित्य भी कह सकते हैं। तीर्थन्करों के साथ धार्मिक पुरुषों, सतियों की कथा भी बहुत उपलब्ध होती है, जिनमें विशेषरूप से इतिवृतात्मकता अधिक होती है। जैन धर्म की सतियों में मृगावती, चंदना, राजुल, धारिणी देवी, अंजना देवी 1. डा० नेमिचन्द्र शास्त्री-हिन्दी जैन साहित्य परिशीलन, द्वितीय भाग, पृ॰ 106.