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आमुख
जैन धर्म और उसका दर्शन भारत के प्राचीनतम धर्मों में से एक महत्त्वपूर्ण धर्म के रूप में भारतीय तथा पाश्चात्य विद्वानों द्वारा स्वीकृत है। उसका दर्शन जहां सिद्धान्तों में तर्क व चिन्तन से समृद्ध है, वहां उसका आचार-परक धर्म-श्रद्धा-निष्ठ व्यवहार की भूमिका पर संस्थित होने से यथार्थवादी है। जैन धर्म की यह सर्वश्रेष्ठ विशिष्टता कही जायेगी कि उसने आचार में सर्व हितकारी अहिंसा, प्रेम तथा करुणा के श्रेष्ठ तत्त्व, विचार में समन्वयकारी अनेकान्तवाद की उत्कृष्ट विचारधारा तथा व्यवहार में संश्लेशहारी अपरिग्रह वृत्ति का दृष्टि बिन्दु विश्व को प्रदान किया है। अतः आचार, विचार और व्यवहार में समृद्ध जैन दर्शन की विचारधारा व तत्त्व आज के आपाधापी से त्रस्त युग में न केवल एक राष्ट्र के लिए वरन् संपूर्ण मानव जाति के लिए कल्याणकारी व उपादेय सिद्ध होते हैं। इन तत्त्वों को अपनाने से मानव-मानव के बीच समानता, समताभाव, शांति, सहकार, मातृभावना तथा सर्व मंगलकारी उदार दृष्टि का विकास होने से विषमता, वैमनस्य परिग्रह वृत्ति (संग्रह वृत्ति) और शोषण वृत्ति का स्वतः ही ह्रास हो सकता है।
जैन धर्म के करुणा सागर तीर्थंकरों, आचार्यों एवं विद्वान तत्त्वचिन्तकों ने संपूर्ण मानव जाति के उत्थान को दृष्टि समक्ष रखकर ही जैन धर्म की दार्शनिक विचारधारा तथा व्यावहारिक नीति-नियमों का संकलन किया है। भगवान महावीर ने वैदिक युग की जीर्ण-शीर्ण समाज व्यवस्था तथा घोर हिंसामय धार्मिक विधि-विधानों को दूर करने के लिए कठोर परिश्रम किया। गुलाम से भी बदतर स्थिति में पीड़ित नारी वर्ग और शूद्रों का उद्धार तथा अहिंसा का प्रसार करने के लिए भी साढ़े बारह वर्ष असीम तपस्या के साथ मानसिक रूप से भी निरन्तर मनोमन्थन, चिंतन तथा संघर्ष किया। परिणामस्वरूप 'केवल ज्ञान' प्राप्त करने के बाद तत्कालीन सामाजिक और धार्मिक परिस्थिति में आमूल अहिंसक क्रान्ति की। स्त्रियों और शूद्रों को भी समानता के अधिकारी घोषित करके महावीर ने धार्मिक नवचेतना के साथ सामाजिक सुधार उपस्थित किए। लोकभाषा में अपनी विचारधारा का प्रसार कर एक नयी चेतना उत्पन्न की तथा प्रत्येक व्यक्ति की समानता व स्वतंत्रता स्वीकार कर 'आधुनिक लोकतांत्रिक दृष्टिबिन्दु' तीर्थंकर महावीर ने आज से 2500 वर्ष पूर्व किया था । प्राणी मात्र