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धर्मपरी०
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तू ॥ प्री० ॥ सु० ॥ १५ ॥ चित्त चल्युं जाणी करी, नाटक मांड्यं जमणे अंग ॥ प्री० ॥ जाव नेद देखाने घणा, ब्रह्मा नवि जोये रंग ॥ प्री० ॥ ० ॥ १६ ॥ कामबाऐ वींध्यो तदा, मन मांहीं चिंते ताम ॥ प्री० ॥ लाज लागे मुख फेरतां, विष जोए विषसे काम ॥ प्री० ॥ सु० ॥ १७ ॥ चोकडी त्रीजी तपे करी, मुख नीकलजो सार ॥ प्री० ॥ चोथुं वदन हुवुं जलुं, दीसे दक्षिण नार ॥ प्री० ॥ सु० ॥ १८ ॥ तव नाटिक गगने कर्यु, नव रस ब्रह्म विलास ॥ पी० ॥ सृष्टिकर्ता मन चिंतवे, केम करी देखें याकाश || प्री० ॥ सु० ॥ १॥ उंचुं जोतां हास्युं इसे, जोया विण न रहाय ॥ प्री० ॥ श्ररध चोककी तप तणे फले, मुज मुख गगने थाय ॥ प्री० ॥ सु० ॥ २० ॥ गर्दन वदन नीकल्युं तदा, मूंकारव करे विकराल ॥ प्री० ॥ तव नाठी तिलोत्तमा, स्वर्ग गइ इंडने | कहे देवाल || प्री० ॥ सु० ॥ २१ ॥ दशमी ढाल बीजा खंडनी, रंगविजय कविराय ॥ प्री० ॥ तस शिष्य नेमविजय कहे, सांजलजो चित्त लाय ॥ प्री० ॥ ० ॥ २२ ॥
उदा.
सांजलजो खामि तुमे, ब्रह्मानो तप जेह ॥ उंठ चोकडीनो कष्ट कर्यो, विफल थयो। सहु तेह ॥ १ ॥ मुख चारे मुज देखीने, पांचमुं रासजनुं होय ॥ विकल थयो नृत्य जोवतां,
खंग २
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