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सांजली पामे सुख ॥ बलि राजा हयडे हरखी, वामन रूप नजरे परखी ॥ १७ ॥ वामन वांद्यो पमीने पाये, विनति करे कर जोमी ताये ॥ जे जोशए ते मागो स्वामि, मुज पासे अंतरजामी॥ १॥ वामन विप्र बोट्या ताम, मुज नहीं नृप लोग्ने काम |त्रण क्रमनी नूमि जरी बापो, मठ बांधवा सारु थापो ॥२०॥ वलतुं बसि बोले
एहवं, विप्र कहो माग्युं केहबुं ॥ मागोने को राज जंमार, घोमा हाथी वृषन अपार |॥॥ विप्र कहे सुणो महाराज, अवर मारे २ नहीं काज ॥ क्रम त्रण मठ करवाने, मही मांहि नूमि जरवाने॥॥ पात्र लेकर दीए धार,खस्ति दान दीधुं तेणी वार॥मुनिवरेवधार्यो अंग,श्रति घणो देखी थया नंग ॥३॥ प्रथम पाय ठव्योज्यां मेर, मानुषोत्तर बीजो ठेर ॥ पाय त्रीजानो नहीं गम, विष्णु कोप्यो बोले ताम ॥ २४ ॥ बलि बांधी पूठे पाय दीधो, सुर नर मली जय जय कीधो ॥ हाथ जोडीने मुनिवरने, कहे दमा || करो स्वामि श्रमने ॥ २५ ॥ एह बंधन बोमो खामि, क्रोध न कीजे गुणग्रामी ॥ उप-||| शममें थया साधु, बलिबंधन छोड्यो निराबाधु ॥ २६ ॥ विष्णुने सहु लाग्या पाये, मंत्रीए धर्म आचर्यो ध्याये ॥ समकित लीधुं सहु लोके, जिनधर्म पाले जन थोके ॥२७॥ श्रावकव्रत बलिए सीधां, मुनिवर वांदे सुख सीधां ॥पद्मरथ राजाए श्राण्यो