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धर्मपरी ॥ २४५॥
जाइ जाखे तेथरे, सहु श्रावो एथ कंकण बांधी थावरे ॥ कीधो परपंचरे, दुवो रोमंचरे, जुई मुज संन्ध सोमा घर लावीउरे ॥ १४ ॥ करे कै तव प्रशंसारे, कर जोमी नमस्यारे, न करे कोइ खींसा ते सुख जोगवेरे ॥ पूरे मन आशरे, नरनारी यावासरे, सवि विलास रयणी दिन जोगवेरे ॥ १५ ॥ गयो केतो कालरे, वली तेहज हवालरे, नवि जाये ढाल जेहने जे पमीरे ॥ प्रकृति जासरी ररे, विचले नवि धीररे, पहेली सुणो वीर ढाल खंग आठमे जमीरे ॥ १६ ॥
उदा.
मरजादा पाली नली, दिवस केटला सीम ॥ द्यूतासक्त वली थयो, श्यो कपटीनो नीम ॥ १ ॥ सुमित्रा वेश्या सुता, कामलता तसु नाम ॥ तेहशुं विलसे रात दिन, तजी आपणी वाम ॥ २ ॥ सोमा मनमां दुःख धरे, नयणे मूके नीर ॥ सुखी वात शेठे सहु, | दे पुत्रीने धीर ॥ ३ ॥ बेटी दुःख कीजे नहीं दीजे कर्मने दोष ॥ सुख दुःख सरज्यां पामीए श्यो कीजे हवे शोष ॥ ४ ॥ आशा तजी जरतारनी, धरी बेठी धर्म ध्यान ॥ इह जव परजव जेहथी, सुख पामशे निरवाण ॥ ५ ॥ मार्न । वात पिता तणी, एक प्रासाद कराव | प्रतिमा श्री शांतिनाथनी, थापी मनने जाव ॥ ६ ॥ प्रतिष्ठा कीधी
खं
॥ १४५॥