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रूप रच्यं मयूर तणुं हे, उनी कार्तिकेय पास ॥ मूळ पामी मुनिवर पडयो हे, लीयो वृष्टि निवास ॥ सा ॥ ५॥ मयूर चाट्यो सामी लेश्ने हे, वन मांही प्रासाद शीतल जिनवरदेवनो हे, दी। टले विषवाद ॥सा॥६॥तिहां मूक्यो जति निरमलो हे, श्रावक करे बहु सेव ॥ मूळ ग सावधान थ हे, मुनि ध्याये जिनदेव ॥ सा॥ ॥ ७॥ करीय संन्यासी मन चिंतवे हे, अनुपेदा ते वार ॥ पवनवेग तुमे सांजलो हे, जावना संखेप विचार ॥ सा० ॥ ॥ धण कण शरीर श्रथिर ले हे, नहीं थिर कुटुंब परिवार ॥ राज रिक सहु अथिर अडे हे, जेसो वीज ऊबकार ॥ सा ॥५॥ शक सचीवने राखवा हे, समरथ नोही स्वछ ॥ मरण काले प्राणीने जथा हे, सिंह धर्यो मृग वह ॥ सा॥१०॥ चार गति जीव पुःख सहे हे, कहेतां न खहं पार
व्य खेत्र नव नावे जम्यो हे, काल ते पंच संसार ॥ सा०॥ ११ ॥ चार गते जीव एकलो हे, साथे नहीं तिहां कोय ॥ फुःख सुख सहे ते एकलो हे, चोराशी लाख जोनि जोय ॥ सा० ॥१२॥ अन्य कलेवर अन्य जीवडो हे, अन्य सह परिवार ॥ जनम जनम ते जुजुया दे, मोह म करशो लगार ॥ सा ॥ १३ ॥ शरीर थडे सात धातुमें हे, मल मुत्र तणो नंमार ॥ रेत ने रुधिरे उपन्युं हे, अशुचि देह मोकार ॥