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धर्मपरी०
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पठी विचार कर्यो में एहरे ॥ जाइ काजे फल घणां जोयेरे, दांते चुंटी नाख्यां भूमि सोयरे ॥ १२ ॥ देह बले वृक्ष धंधोल्यो जामरे, मस्तक लाग्यं श्रावी निज ठामरे ॥ माथुं धम हुवा बेड एकरे, पोटली कोठ बांध्यां वली बेकरे ॥ १३ ॥ कोठ गांठको मस्तक लेइरे, वन मांहीं जाइ जोयो फरी तेहीरे ॥ जोतां थकां दीठो लघु चातरे, सूतो निद्राजर तेहशुं जातरे ॥ १४ ॥ साद करी उठाड्यो जाइरे, गामर क्यों बेरे किदां जाइरे ॥ लघु जाइ जणे बांधव तुमे सुणजोरे, कुधा दोष मुज उपन्यो गणजोरे ॥ १८५ ॥ तरुवर तले सूतो हुं जामरे, मेंढां न जाएं गया कोण ठामरे ॥ बेदु जा मली जोयां वन मांहींरे, नहीं दीगं गामर अज त्यांहींरे ॥ १६ ॥ मन जयजीत दुवो हुं जामरे, लघु जाने कहुं हुं तामरे ॥ सांजल जाई श्रापणो पितारे, कोप करशे आपण ने जीतारे ॥ १७ ॥ माता श्रापणी जूठी बहु बेरे, मंदिर पेसवा नहीं दीए पढेरे ॥ वारु विचार घटे वे एहरे, आपण जश्ए परदेश बेहेरे ॥ १८ ॥ पेट जरवानी परेज कीधीरे, | मस्तक मुंडावी दीक्षा लीधीरे ॥ कंठ कंठा काने मुद्रा कीधरे, हस्त दंग धर्यो हुवा एम सिद्धरे ॥ १९ ॥ देश विदेशे निक्षाने जमतांरे, एणी परे काल बेहु निगमतारे ॥ पाटलीपुरमां फरता याव्यारे, जोतां देखी भूमिका फाव्यारे ॥२०॥ वादशालाने
खंग ६
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