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धर्म प० 112 11
जय जयकाररे ॥ सु० ॥ १६ ॥ शंकर यागल संचरे, पालथी गौरी नारीरे ॥ फेरा दीये चोरी पाखले, ब्रह्मावांचे वेद उचारीरे ॥ सु० ॥ १७ ॥ हुताशन साखे त नाखे, पाणेतर गौरीए पढेयरे ॥ बेमो लाग्यो उमीया तणो, उंचो लइ जलवतां वियोंरे ॥ सु० ॥ १८ ॥ जंघा दीठी तत्र रुयमी, विकल थयो ब्रह्मा तामरे ॥ काम कुतूहल चिंतवतां, खलप हुवो तेणे ठामरे ॥ सु० ॥ १५ ॥ देव सघला तिहां देखता, लाज्यो ब्रह्मा मन मांहिंरे ॥ वेलु वाली पगे मरदले, वीर्य ढांक्यो निज त्यांहिंरे ॥ सु० ॥२०॥ चुरी वेलु मांही उपन्या, सहस्र श्रव्याशी ऋषिरायरे ॥ कमंडल मंड हाथे धर्यां, नवीने लाग्या ते पायरे ॥ सु०॥२१॥ वालुष नाम यादे करीरे, ब्रह्मा पुत्र पुराणे प्रसिद्धरे ॥ वालुखल रूपे ते रुयमा, तप जप तिहां थकी लीधरे ॥ सु० ॥ २२ ॥ खंड बीजानी ढाल ए कही, सत्तरमी सुणजो वारुरे ॥ रंगविजयनो शिष्य एम कहे, नेमविजय श्रोता सारुरे ॥ सु ॥ २३ ॥
उदा.
मनोवेग कहे सांजलो, पवनवेग विचार ॥ ब्रह्मचर्य ब्रह्मा तपुं, नातुं तिहां अपार ॥ १ ॥
खंग २
॥ ५५ ॥