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________________ पाँचवा सर्ग। [ ३९ आत्मा स्वार्थी नहीं बनता है । जो इस व्रतको करता है उसको इष्टका समागम और अनिष्टका वियोग तो सदा ही हुआ करता है। उसके स्वाभाविक प्रीति और स्वाभाविक ही गुणोंकी प्राप्ति होती है । वह आत्मा किसीके आधीन नहीं रहता-स्वतंत्र हो जाता है। इस व्रतके अनुष्ठायी आत्माको सुन्दर पुत्र और सुन्दरी पुत्रियोंकी प्राप्ति होती है। तथा उसको पुत्रकी वधू और जमाई एवं नाती, पोते और ननन्द वगैरह सभी मनोरम मिलते हैं, हंस कैसी गति, कोकिल कैसी मधुर वाणी और शुभ व्यापार तथा शुभ परिणामोंकी प्राप्ति होती है। निरन्तर धर्मात्मा और धर्मका समागम रहता है । रहनेको अच्छे २ महल मिलते हैं; सोनेको सुन्दर२ शय्यायें मिलती हैं, खानेको मान और पहिरनेको नाना भूषण मिलते हैं। अच्छी२ गंध, अच्छे२ आवास एवं अच्छे २ वस्त्र और विलेपन मिलते हैं। हाथी, घोड़े, रथ, यान, वाहन, पदाति आदि विभव भी सब सुखद ही प्राप्त होता है । इस व्रतके प्रभावसे पिच्छछत्र, इन्दुछत्र, चन्द्र, चमर वीजन ( ढोरना ) जपान, शिविका और दोलायायित्व ये सभी लीलामात्रमें प्राप्त हो जाते हैं। जगत्के नेत्रोंको आनन्द दायित्व, संसार भरका स्वामित्व, सत्कीर्ति, सुवर्णके समान शरीरकी कान्ति और मंद २ चलना, दयाभाव, क्रोधराहित्य, अवंचकता, निर्लोभपन, गर्वराहित्य आदि सब बातें प्राप्त होती हैं। इस व्रतवालेको कभी आधि-मानसिक दुःख नहीं होता है, चन्द्रमाकी नाई सुन्दर मुख मिलता है, तथा उसका आत्मा निर्मलताको प्राप्त होता है, न्यायसे कभी भी पीछे नहीं हटता । श्रुतस्कंधकी भक्तिसे चक्रवर्ती, बलदेव, नारायण, इन्द्र, अर्हन्त विद्याधर आदिके
SR No.022754
Book TitlePrabhanjan Charitra
Original Sutra AuthorN/A
AuthorGhanshyamdas Jain
PublisherMulchand Jain
Publication Year1916
Total Pages118
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size4 MB
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