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________________ ३६ ] प्रभंजन- चरित । तीव्रतर यातनावाले सातवें नरक में जाता है। सातवें नरक में भी पूर्वोक्त दुःखोंको तेतीस सागरतक भोगता है, और बाद वहाँसे निकलकर क्रूर परिणामी सिंह होता है। सिंह पर्याय में भी अपने क्रूर भावों से पापों को इकट्ठाकर मरता है, और उस धूमप्रभा नामक पाँचवीं पृथिवीमें जाकर नारकी होता है जहाँपर रहना बहुत दुःखप्रद है | वहाँपर तीव्र दुःखों को सहते २ जब सत्रह सागर पूरे कर लेता है, तब वहाँसे निकल उरग-सांप होकर फिर चौथी पृथिवीमें जाकर उत्पन्न होता है | वहाँपर भी अत्यन्त क्रूर भावोंसे - भारी दुःखोंसे दश सागर कालको पूरा करनेके बाद वहाँ से निकल पक्षी होता है । एवं मरकर फिर बालुकाप्रभा पृथिवीमें जन्म लेता है । वहाँ सात सागर पूरे कर मरता है और फिर सरीसृप जातिका. सर्प पैदा होता है । ग्रन्थकार कहते हैं कि शीलभंगसे क्या २ दुःख नहीं होते ? सरीसृप अवस्थासे दुःखोंके साथ मरकर दूसरी पृथिवीमें जन्म लेता है । वहाँ तीन सागर आयुको भारी दुःखोंके साथ पूरा करता है और वहाँसे निकलकर असंज्ञी जीव होता है । वहाँसे भी मरणकर दुखोंकी खानिरूप पहिली पृथिवी में जाता है, और वहाँ हज़ारों दुःखोंको भोगता है। वहाँसे निकलकर एक सागर कालतक नाना तिर्यञ्च योनियोंमें ही परिभ्रमण करता रहता है, कुत्ता होता है, कुत्तेसे फिर कुत्ती होता है, घूक, और आखू ( चूहा ) होता है । बरड़, जलकाक, शृगाल आदि नाना पशु पक्षियोंमें जन्म लेता है । इस प्रकार भ्रमण करता हुआ यह जीव शीलभंगके पापसे दुःसह २ दुःखोंको भोगता है। यदि किसी प्रकार मनुष्य भी हो जाता है तो कुणप, कुब्ज, वामन, अन्धा, गूँगा, दरिद्री 1
SR No.022754
Book TitlePrabhanjan Charitra
Original Sutra AuthorN/A
AuthorGhanshyamdas Jain
PublisherMulchand Jain
Publication Year1916
Total Pages118
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size4 MB
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