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________________ धन्य-चरित्र/83 दानादि वृथा ही है, क्योंकि व्यवहार राशि में रहे हुए जीवों को संसार में परिभ्रमण करते हुए अनन्त पुद्गल परावर्तन बीत गये हैं। वहाँ किसी एक जीव द्वारा अनेक भवों में क्या-क्या धर्म-कृत्य नहीं किया गया? सभी धर्म-कृत्य किये गये, पर एकमात्र समता-भाव के बिना सब कुछ बेकार है। उसके बिना वे धर्म-कृत्य अनन्तगुणा नहीं हुए। अतः हे स्वामिनी! सहसा कुछ भी नहीं बोलना चाहिए। जितनी निर्वाह-शक्ति हो, उतना ही बोलना चाहिए। जब यौवन काल का उदय होगा, तब ही जानोगी। आगम में भी समस्त व्रतों के मध्य में ब्रह्मचर्य को ही दुष्कर कहा गया है, जिसकी रक्षा के लिए नव-वाड़ कहीं गयी हैं। अतः धैर्यशालिनी बनो। अज्ञता में कुछ भी मत कहो।" तब सुनन्दा ने कहा-"तुमने जो कहा, वह मैंने अवधारण कर लिया। पर अभी तो मैं विवाह नहीं करूँगी। अतः तुम माता के समीप जाकर बोलो-सुनन्दा का विवाह अभी नहीं करना चाहिए। आगे जब मेरी इच्छा होगी, तब बता दूंगी। मेरे आवास में किसी भी कारण से पुरुषों को नहीं भेजा जाये। सखियों अथवा दासियों द्वारा ज्ञापित कराया जाये।" सखी ने भी जाकर जननी को उसका आशय बता दिया। माता ने पूछा-"ऐसा क्यों बोलती है?" सखी ने कहा-"किसी कारण से उदासीन हो गयी है। अतः शादी के लिए ना बोलती है। परन्तु यौवन का उदय होने पर स्वयमेव चाहेगी। चिंता न करें।" सखी ने वापस आकर सब कुछ सुनन्दा को बताया। सुनन्दा भी वह सब सुनकर शान्त-चित्त से अपने आवास में सखियों से घिरी हुई सुख से काल व्यतीत करने लगी। ___ उसी नगर में आढ़य, दीप्त, धन-धान्य से भरे घर में वसुदत्त नाम व्यापारी रहता था। उसके चार पुत्र थे। उनमें पहला धर्मदत्त, दूसरा देवदत्त, तीसरा जयसेन तथा चौथा रूपसेन था। चारों भी निपुण, उपमान-गत रूपवाले, सभी व्यापार आदि कार्यों में कुशल, अपने द्वारा अंगीकृत कार्यों का निर्वहन करने मे दक्ष थे। __ इन सब में चौथा रूपसेन काम-शास्त्रों में अति निपुण तथा चतुर पुरुषों में अग्रणी था। पिता तथा ज्येष्ठ भ्राताओं को अति प्यारा होने से निश्चिन्त था। उसे कोई भी कष्ट-साध्य कार्य नहीं देता था। वस्त्र-आभरण से भूषित होकर अश्व पर आरूढ़ होकर अथवा पैदल ही यथा-इच्छा नगर में, चतुष्पथ में, राजपथ
SR No.022705
Book TitleDhanyakumar Charitra
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJayanandvijay, Premlata Surana,
PublisherGuru Ramchandra Prakashan Samiti
Publication Year
Total Pages440
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size30 MB
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