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________________ धन्य - चरित्र / 76 आरूढ़ होकर विविध हाथी, घोड़े, रथ, भट आदि सेना से परिवृत विविध देशों से आये हुए भाट-जनों के विचित्र रचनामय रूपक गीतों द्वारा स्तुत्यमान अनेक वादित्रों के वादनपूर्वक अपने घर आया । तब चतुष्पथ पर रहे हुए मनुष्य धन्य के गुणों का वर्णन करते हुए कहने लगे - "देखो-देखो। मनुष्य भव में देवत्व को देखो। जिस कारण से उदारता, शौर्य, गम्भीरता, धीरता आदि गुण इसमें रहे हुए उपमान रूप हो जाते हैं। चार भाइयों के बीच सबसे छोटा होते हुए भी परोपकार करनेवाला, दीन-हीन का उद्धार करनेवाला, स्व - कुटुम्ब आदि का परिपोषण करनेवाला, उनके नीचे-ऊँचे आदि शब्दों को सहन करनेवाला आदि विविध गुणों से युक्त वह बड़ों की तरह दिखाई देता है ।" तभी दूसरा व्यक्ति बोला - "गुणवालों का वय से क्या प्रयोजन? ये इस पुण्य - निधि धन्य के अग्रज किम्पाक फल के समान आकृतिवाले इसी के प्रसाद से यथेच्छित सुख का अनुभव करते हैं। जब ये लोग यहाँ आये थे, तो भिखारी से ज्यादा दुर्दशा को प्राप्त सभी जनों द्वारा देखे गये थे। अब तो अभिमानी होकर तिरछी नजरें करके लोगों के नमस्कार का भी प्रत्युत्तर देने की उचित प्रवृत्ति भी नहीं करते हैं। लेकिन उससे क्या ? इस टेढ़ेपन का निर्वाह तो ये लोग गुणनिधि धन्य के प्रभाव से ही करते हैं। इनके खुद के प्रभाव से नहीं।” इस प्रकार वे तीनों भाई स्थान-स्थान पर धन्य का गुण वर्णन सुनकर यवासक वृक्ष की तरह जलते हुए लोभ से अभिभूत होकर पिता के पास आकर बोले - "हे तात! हम सब पृथक-पृथक घर में रहेंगे। आज के बाद हम धन्य के साथ नहीं रहेंगे। अतः हमारी लक्ष्मी का भाग हम सब को दे दीजिए।" तब धनसार ने उनके वचनों को सुनकर कुछ हँसकर प्रत्युत्तर दिया- "बेटों ! तुम इस समय धन माँग रहे हो, तो क्या तुम लोगों ने पहले इस धन्य को धन अर्पित किया था, जो कि ग्रहण करने के लिए उत्सुक बन रहे हो? और भी, तुम वह सभी क्यों याद नहीं करते हो कि अपने नगर से शरीर - मात्र लेकर अति दीन अवस्था में हम सभी यहाँ आये थे। तब धन्य ने ही अपनी सज्जनता, विनय आदि गुण-गौरवता के द्वारा स्वाभाविक स्नेहपूर्वक तुम्हारे द्वारा किये गये दोषों को भुलाकर इच्छित धन-वस्त्र आदि के द्वारा सत्कार किया। उसे क्यों नहीं स्मरण करते?" इस प्रकार पिता के मुख से सुनकर सुजनता के दुश्मन वाचाल उल्लु की तरह वाणी से घोर वे तीनों धन्य के अग्रज अपने पिता को इस प्रकार बोले - "हे तात! आप तो दृष्टि राग से अंधे होकर किसी के भी दोष को नहीं
SR No.022705
Book TitleDhanyakumar Charitra
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJayanandvijay, Premlata Surana,
PublisherGuru Ramchandra Prakashan Samiti
Publication Year
Total Pages440
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size30 MB
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