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________________ धन्य-चरित्र/61 विक्रय भी यथावसर शीघ्र ही हो जाता है एवं राज-देय भी शीघ्र ही देने में समर्थ हुआ जा सकता है। तुम्हारे पिता भी हम पर प्रसन्न हो जायेंगे कि मेरे बाल पुत्र को भद्रिक जानकर स्वल्प द्रव्य-व्यय के प्रयासवाली वस्तु दी। अतः मिट्टी ग्रहण करके सिद्धि करो। भव्य ही होगा।" तब धन्यकुमार ने भी शिष्टाचार की रीति से प्रत्युत्तर दिया "महान्तो वृद्धा ईदृशा एव भवन्ति, बालादीनां वृद्धा हितकरा भवन्ति। महाजनानामयं प्रसादः सर्वकामदो भविष्यति।" । अर्थात् बड़े बुजुर्ग ऐसे ही होते हैं, बालक आदि के लिए वृद्धजन हितकर होते हैं। बड़े लोगों का यह प्रसाद सर्व मनोरथ पूर्ण करनेवाला बनेगा। इस प्रकार मीठे वचनों द्वारा उन्हें संतुष्ट किया। फिर धन्य मन में विचार करने लगा-“देखो! स्वार्थ पूर्ति के लिए इनका दम्भ-कौशल! मुझ में बाल-भाव जानकर कैसे-कैसे वचन कहकर परीक्षा-ज्ञान में विकल ये लोग कुत्सित वस्तु की बुद्धि से यह मिट्टी मेरे सिर पर मारकर चले गये। ठीक ही है संसारे स्वार्थ विना न कस्यापि कोऽपि वल्लभो भवति। अर्थात् संसार में स्वार्थ बिना कोई भी किसी को प्रिय नहीं होता। मैंने तो देव-गुरु के चरण–प्रसाद से सहज रूप से अपरिमित लाभ प्राप्त कर लिया।" इस प्रकार परीक्षक-शिरोरत्न धन्य स्वल्प मूल्य द्वारा उस मिट्टी को अपने घर ले गया। तब उसके तीनों अग्रज-भ्राताओं ने क्षार-धूलि से भरे उन कलशों को देखकर ईर्ष्या के दोष के वश में ताली बजा-बजाकर हँसते हुए पिता के आगे धन्य पर मूर्खता का आरोप लगाने लगे-“हे तात! देखो! आपके दक्ष पुत्र के वस्तु ग्रहण करने के कौशल को तो देखो। विविध देशों में उत्पन्न, विचित्र प्रभाववाली दुर्लभ तथा इस देश में अपूर्व, महामूल्यवाली, पहले कभी न सुनी गयी, न देखी गयी-ऐसी भाग्य से लभ्य वस्तुएँ इस जहाज में बहुत थीं। उनके मध्य से जो-जो लोग व्यापारों में, क्रय-विक्रय कर्म में कुशल, क्रयाणक के उत्पत्ति गुण-संयोजन भेदों में दक्ष थे, उन्होंने उन अभीष्ट साधक अपनी-अपनी वस्तुओं को ग्रहण किया तथा अपना प्रयोजन पूर्ण किया। लेकिन आपका प्रिय पुत्र तो उनके द्वारा ग्रहण किये जाने के बाद जो वस्तु उद्गीर्ण थी, जिसे किसी ने भी ग्रहण नहीं किया था, उस निकुत्सित, धूलि के पुंज रूप, हीन जनोचित लवण को लेकर आया है। इसमें तो शुद्ध लवण भी नहीं है। लवण-ग्राहक तो इसका हाथ से स्पर्श भी नहीं करेंगे। इसने तो केवल धूलि से घर को भर दिया। अब इस लवण का किस रीति से क्रय-विक्रय होगा? पूर्व में जिनके द्वारा
SR No.022705
Book TitleDhanyakumar Charitra
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJayanandvijay, Premlata Surana,
PublisherGuru Ramchandra Prakashan Samiti
Publication Year
Total Pages440
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size30 MB
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